सुबह आंखों की पलकों को आलस्य के साथ खोलता हूं। अपने आसपास की धुंधली पारदर्शिता को जब पूरा नजरों में बीते दिनों जैसा पाता हूं तो इस नाटक को भूल जाता हूं। बाहर निकल संदेह भरा नाटक खेलता हूं। उन सबको अपनी दृष्टि में ढूंढ़ता हूं जो मेरे आस-पास कल तक थे। आज हैं के यथार्थ में यह नाटक भी पूरा हो जाता है। बाजार जाता हूं तो संतोष भरा नाटक करता हूं। सब्जी वाले,दूध वाले और राशन की दुकान वाले और उन सभी को जहां मैं कोई खरीददारी करता हूं उन्हें देख संतोष होता है। यहीं जन्मा संतोष इस नाटक को समाप्त करता है। जिसकी समाप्ति मुझे वापस कमरे पर निर्भिक होकर आने का बल देती है। मैं इतना पहले कभी नहीं डरा। आज भी नहीं डरता हूं लेकिन डर लगता है। क्यों लगता है? इसका ज़बाब उतना हीं कठिन है जितना इस वक्त में सांस लेना। परंतु जो समाज अब-तक सिर्फ भगवान से भय करता आया है। वह आज उससे इतर डरा हुआ है। राम नाम की माला जपने वाला मनुष्य आज अपनी सांसों की माला जप रहा है। इतनी तल्लीनता से कि एक सांस भी छूटने न पाए। छूटती सांसों में जीवन बसा हुआ है। सांसों कि इस ऊहापोह में परमेश्वर से हमारी आकांक्षाएं सिमीत हो गई हैं। सिमटती आकांक्षाओं में प्रभु हमारी रक्षा करने से ऊपर कोई विनती नहीं। धार्मिक स्थलों पर लटकते ताले, अस्पतालों में गूंजती चीखें, मिट्टी में मिलते हमारे आंसू और नदियों में तैरती लाशें प्रत्यक्षदर्शी है कि मनुष्य स्वयं के लिए जीता आया है। सबने बस एक नाटक किया था। अपनत्व का नाटक वह अब समाप्त हुआ।
-पीयूष चतुर्वेदी
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