अक्सर हमारे बीच आपातकाल की चर्चा होती है। अब तक इसकी घोषणा एक बार हीं हुई है। १९७५-१९७७ माननीया भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा। इस विषय पर तरह-तरह की बातें सुनने को मिलती हैं। विपक्ष के दमन से लेकर प्रशासन के कर्म तक के किस्सों को हमनें अपने कानों से सुना है। बड़े-बुजुर्ग आंखों देखा हाल भी बताते हैं। इंदिरा की हार और जेपी आंदोलन की जीत की कहानियां न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों में खूब दिखती और छपती थीं लिखने और बोलने वाले तब भी नहीं डरे। कलम की ताकत ने इंदिरा जी के अहम को काट कर रख दिया था। लोग आज भी उन किस्सों को पढ़ते हैं। घंटों आंखें टीवी पर टीका मंथन करते हैं। उन दिनों की कल्पना कर चिंता करते हैं और भूल जाते हैं। हमारे भूलने की बिमारी ने हमें इतना सहनशील बना दिया कि हम हर प्रकार की समस्या को छुपाना सीख गए। सही-गलत के परिधी को स्वयं तक सिमटा बैठे। निज कल्याण की भावना में सोच सिमीत कर बैठे। उसके साथ जिने के लती बन बैठे। इसी का आज यह परिणाम है कि सरकार के खिलाफ बोलना देश के खिलाफ बोलना हो गया। सत्ता के खिलाफ बोलने वाली जनता के अधिकारों का हनन जनता के प्रधान सेवक की छवि सुधारने के लिए की जा रही है। एक साधारण रिक्सा चालक भी सेवक के लिए खतरा बन चला है। खेतों में अपनी फसल काटने वाला गरीब किसान ने सत्ताजीवियों के दिल्ली दरबार में भूचाल ला दिया है। वास्तव में आपातकाल को दो श्रेणियों में बांटने की आवश्यकता है। घोषित एवं अघोषित। घोषित का परिणाम और किस्से हमें देखने और सुनने को मिलता है। कलम की स्याही उसे लोकतंत्र का काला अध्याय कहकर संबोधित करती है। और अघोषित के परिणाम को सभी देखते हैं लेकिन चंद मुठ्ठी भर लोग अपनी आवाज बुलंद करते हैं। रूपए की कलम से इस स्थिति में भी सेवक का श्रृंगार किया जाता है। उनकी छवि को अलंकृत किया जाता है। प्रज्ञा हीन भावना को बढ़ावा देता एक माध्यम उसका गुणगान करता है। और जनता अपने भीतर डर लिए मौन बैठी रहती है। बोलने की स्थिति में कारागार का डर और न बोलने की स्थिति में वर्तमान का डर। लोकतांत्रिक देश में आपातकाल की कोई मूल स्थिति नहीं होनी चाहिए। दूसरे झरोखे से देखें तो है भी नहीं। उसके लगने-लगाने का कारण तो बहाना मात्र है। जब विश्व के महानतम लोकतांत्रिक देश में जनता के भीतर सेवक के शासनादेश से डर की उत्पत्ति हो जाए समझ लेना आपातकाल की स्थिति है। फिर क्या पक्ष,क्या विपक्ष? जब डर हीं डर सर्वत्र। वह दिन दूर नहीं जब विश्वगुरु भारत में तीसरे प्रकार के आपातकाल की चर्चा होगी जिसे स्वघोषित आपातकाल की संज्ञा दी जाएगी।
-पीयूष चतुर्वेदी
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