सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, June 13, 2021

सजीवता का झुलसना इस देश की जनता की दीनता को प्रदर्शित करता है -पीयूष चतुर्वेदी

भारत देश विविधताओं का देश है। वर्षों से इस राष्ट्र ने अनेकता में एकता की पराकाष्ठा को सजीव रखा है। अब धीरे-धीरे इसकी सजीवता सूखती जा रही है। मानों गर्म हवा की तपिश ने मानव रूपी पौधे को जड़ से समाप्त करने की ठान रखी हो। सजीवता का झुलसना इस देश की जनता की दीनता को प्रदर्शित करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हम सभी कानून की गिरह में जकड़े होते हैं। सभी के कार्य क्षेत्र, स्वतंत्रता,अधिकार आदि की एक सीमा होती है। परंतु इन सीमाओं की परिधि में मात्र आम जनता कैद है। लोकतंत्र के पुरोधा परिधी के बाहर टिके सब कुछ अपनी व्यवस्था और सुविधा के अनुसार लागू करने की जुगत में लगे हैं। वो सभी पुरोधा स्वयं को राष्ट्र का सेवक कहते हैं। यह कहना भी उनकी स्वयं की घोषणा है। राष्ट्र का निर्माण जनता से होता है। खादी में जनता के सेवक हैं और खाकी में जनता के नौकर। आम जनता की कोई वेषभूषा नहीं। वह कानून की ककहरा रटते राष्ट्र के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी को निभाने में व्यस्त है। अफसोस इस बात का है कि जो खादी में हैं वह चुनाव मात्र तक सेवक हैं और जो खाकी में है उनकी ईमानदारी पर गहराया संदेह आजादी के इतने वर्षों बाद भी प्रगाढ़ है। इसके पिछे का मौलिक रहस्य यह भी है कि देश में न कभी कोई प्रधानमंत्री हुआ न जनता कभी मूल रूप से जनता रही। उस शिर्ष पद पर पहुंचने वाला हर नेता वृहद बेहयाई से स्वयं को प्रथम सेवक, राष्ट्र भक्त, राष्ट्र चिंतक, राष्ट्र सेवक, युवा हृदय सम्राट, प्रधान सेवक यहां तक की कुछ ने तो स्वयं को चौकीदार की भी भाव-भंगिमा से सजाया। बस जनता उसकी कुटिलता से इतर अपने नमक रोटी में इतनी व्यस्त रहती है की वह भूल बैठी कि उसे प्रधानमंत्री चुनना है या स्वयंभू सम्राट। शायद इसमें जनता का भी दोष नहीं। क्यों कि जनता भी कभी जनता नहीं रही। कभी हिंदू तो कभी मुस्लिम, कभी सिक्ख तो कभी ईसाई। कहीं राम जी का धनुष और परशुराम जी का फर्शा, कहीं अल्लाह और मुहम्मद साहब के नाम पर बंदूकों की गोलिबारी और बमबारी। यह तो मात्र धार्मिक टकराव है। तिलक तराजू और तलवार की अपनी अलग लड़ाई है। इस लड़ाई में हरिजन की उपस्थिति इसे इतना मारक बनाती है कि सेवको का शासन करना प्राकृतिक रूप से और भी सहज हो जाता है। इसी सहजता का यह परिणाम है कि निर्जिविता पनप रही है। जनता के अधिकार कागजों में अंगड़ाई लिए स्याही की चादर ओढ़े सो रहे हैं और सड़कों पर उनके अधिकारों का डंडे से स्वागत किया जा रहा है। जहां राजद्रोह और राष्ट्रदोह को एक हीं आईने से दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसा मात्र इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि हमारे देश में ना हीं कोई मौलिक प्रधानमंत्री है न कोई जनता। उम्मीद है हम पुनः अपनी दुर्दशा पर चिंतन कर गलतियों को गंगा में बहा एक सुव्यवस्थित और सुसंगठित चुनाव में हिस्सा लेंगे जहां जनता अपने प्रधानमंत्री को चुनेगी। जहां हम मुखर होकर कहेंगे कि नहीं चाहिए हमें सेवक। हम अपना बोझ उठाने के काबिल है। हम प्रधानमंत्री चाहिए जो राष्ट्रहित में फैसला ले। जनता का सम्मान करे। 
-पीयूष चतुर्वेदी

No comments:

Popular Posts

सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा।  हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल?  का पता हो,...