न्यूनतम इंसान को इंसान को इंसान समझने की भूख सभी में होनी चाहिए। लेकिन सत्ताजिवीयों की समझ को दीमक लग गया है। भूख लगने पर उन सबों ने केवल गरीब जनता के शरीरों को गिद्धों जैसा नोचा है। बहुत बड़ी संख्या में लोग इसमें शामिल हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
दादा का संसार- २६-१२-२०२५ वह धीमा चलते थे। इतना धीमा की पैरों के निचे चिपकी धूल सुरक्षित महसूस करते थे। पत्तों की झुरमुट...
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