सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Thursday, May 5, 2022

कलयुग में त्रेता की बात कर हमें द्वापर के मायाजाल में फंसाया गया है


हमें ठगा गया है।
सरकार और सरकारी तंत्र ने हमें अतीत के नाम पर डराया है। कलयुग में त्रेता की बात कर हमें द्वापर के मायाजाल में फंसाया गया है। चुनावी मुद्दों को आस्था का जुमला पहना हमारी मूलभूत आवश्यकताओं को हमसे दूर रखने का चलित षड्यंत्र किया है। रामराज्य की कल्पना को दर्शा रावण राज्य के सपनों को समाप्त किया है। यदि मुद्दों को धर्म का चोला पहनाना था, युगों में भटकाना था तो प्रथम वरियता रावण राज्य को देना था। 
स्वर्ण की लंका।
धन की अधिकता।
सुख समृद्धि से सजा जनता का सौभाग्य।
नारी का सम्मान।
जनता की खुशी।
राष्ट्रभक्ति की खुशबू में सनी एकता।
परंतु युग पुरुष व्यक्तित्व से सुसज्जित प्रधान सेवक ने रामराज्य की कल्पना में जिस प्रकार के यथार्थ से हमें अवगत कराया है उसकी आवश्यकता शायद लंका में भी नहीं।
फिर भी हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारत देश में रहते हैं। जहां सभी संसदीय पद्धति से जुड़ा व्यक्ति सेवक है। कोई प्रधान तो कोई निम्न। हमें आज भी आवश्यकता है प्रधानमंत्री की। 
प्रथम सेवक से प्रधान सेवक तक का भारत रामराज्य के वादों में झूल रहा है।
या सत्यता को वास्तविकता में डालने का प्रण लिए बाबा को "दिया और बाती" हीं नजर आता हो। मानों सेवक का संसार सजाए बैठे लोग सेवा करना हीं भूल गए हों। या सेवक भी देवताओं का रूप धर इंद्र बन बैठे हों। जहां चुनाव हारने का खतरा उन्हें देव तुल्य जनता के समक्ष रोता छोड़ देती है और सत्ता हाथ लगते हीं अप्सराओं का रंगमंच और मदिरा का रंग जमता है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Wednesday, December 15, 2021

मैं स्वतंत्र हूं?

हम स्वतंत्र हैं ना? 
रिश्तों के घने जंगल में अपने फैसले लेने के लिए?
प्रदूषित हवा में लंबी,गहरी सांस लेने के लिए?
समाज में फैले शोर में अपनी बात कहने के लिए?
यातायात की लंबी कतार में दो कदम सुकून से चलने के लिए?
कटते पेड़ों से उड़ते चिड़िया के घोंसले सजाने के लिए? 
थकी हुई नींद में सुनहरे सपने देखने के लिए? 
आज और कल की लड़ाई में अभी को चुनने के लिए?
मौन को सजाकर खुद से मिलने के लिए?
अदनी सी बातों पर बेमतलब पागलों सा हंसने के लिए?
नदी किनारे शांत बैठ बहते पानी में स्वयं को ढूंढने के लिए?
पक्षियों की ध्वनि मधुर ध्वनि में शून्य हो जाने के लिए?
भारी भीड़ में उलझे हुए स्वयं में खो जाने के लिए?
अवसादों से घिरे जीवन में शांति के पल ढूंढ मुस्कुरा लेने के लिए?
सत्ता से नाराज़ होकर सेवक को उसके वादे याद दिलाने के लिए? 
हम स्वतंत्र हैं ना? 
हम हैं ना? 
हमारा होना बाकी है ना?
और यह सच है ना?..
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मैं स्वतंत्र हूं ना यह सारा कुछ लिखने के लिए?
कोई मुक्त है ना लिखा हुआ पढ़ने के लिए?

-पीयूष चतुर्वेदी
Https://itspc1.blogspot.com

Friday, November 19, 2021

"सेवक की संवेदना और संवेदनशीलता"


आम जन इस भाषा से बचपन से जुड़े होते हैं। इस भाव के साथ बड़े होते हैं कि उनके भीतर संवेदना समाहित है। हर क्षण हृदय में उसकी उपस्थिति को महसूस करते हैं। परंतु विश्व के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले राष्ट्र में स्वघोषित राष्ट्रनिर्माता नेताओं और प्रधान सेवक की संवेदना चुनाव से ठीक पहले जागता है। वह सो रहा होता है कहीं लालच की चादर ओढ़ जब देखता है कोई खींच रहा है उसकी निंद को तो वह संवेदनशील हो जाता है। शायद निंद में निंदा को स्विकार करने की क्षमता नहीं रहती होगी? या चौकादारी के नशे में अहम का अफीम महकता होगा। या संवेदना मौत की चौखट पर आंखें गड़ाए खड़ी होगी कि शरीर शांत हो और संवेदना चौखट लांघ जाए। या किदवंती कथाओं सा अमर,अमिट विश्वास होगा जो बलिदान की भूखी हो जो बेकसूर लोगों की मृत्यु के बाद सेवकों के कंठो में घर कर जाती है। हमें यह समझना होगा कि यह मात्र आरंभ है। अंत कहीं अब भी दिल्ली दरबार में कुर्सी पर शतरंज की बिसात बिछा रहा है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Sunday, August 8, 2021

राम राज्य

"अकबरपुर" कानपुर देहात। यह उत्तर प्रदेश में एक छोटा सा स्थान है। आए दिन यहां सड़कों पर दुर्घटना होती है। सांड़ भारी तादाद में सड़कों पर खाना बदोश भटकते फिरते हैं। कूड़ा घर में अपने लायक भोजन ढूंढते हैं। गौ माता की स्थिति भी समान हीं है। प्रदेश में गौ रक्षकों की बड़ी टीम है। लाखों की संख्या में उसमें आवेदन पत्र जमा किए गए थे। मुख्य नेतृत्व स्वयं भी उसकी कड़ी गढ़ते हैं तथा सेवा मूल्यों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन अकबरपुर उस सोच से इत्तफाक नहीं रखता। या सुनवाई इस लिए भी नहीं हो रही कि सांड़ लोगों के रास्ते में नहीं आ रहा लोग सांड़ के रास्ते में आ जा रहे हैं ऐसी विचारधारा की उत्पत्ति भी हो सकती है। या नाम में कुछ रहस्य है? नाम अकबरपुर होने में पाकिस्तान की खुशबू साहब तक पहुंच रही हो? शायद नाम बदलने के बाद उचित कार्रवाई होने की उम्मीद है? गौ माता की सेवा और उनकी संतानों के रहने खाने की उचित व्यवस्था का ध्यान रखा जाए। और यह सब रक्षकों को समय रहते तय करना है। क्योंकि एक पंचवर्षीय राम रज्य का समापन निकट है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Friday, August 6, 2021

गांधी जी के नोट पर मुस्कुराने और प्रधान सेवक के अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर मुस्कुराने में सैद्धांतिक भेद है -पीयूष चतुर्वेदी


आज भी अक्सर जन नेताओं को नेतागिरी से ऊपर उठकर बात करने देखता हूं। ऊंचे मंचों से उनके झूठे वादों और दमदार भाषण को सुनता हूं। मेरे सुनने और मेरे चुनने के मध्य एक माध्यम होता है। उस माध्यम को बुद्धिजीवी वर्ग ने मिडिया का नाम दिया है। यह मिडिया कभी पसीने से भिंगे सर्ट पहन बोलता हुआ, कभी सफेद पन्नों स्याही उल्हेड़ लिखता हुआ नजर आया करता था। लेकिन आज मेरी नजरें पन्नों पर उस सच्ची स्याही को ढूंढती हैं जो बीते कुछ वर्षों से नजर नहीं आ रहा। सच कहीं डरा हुआ बीच के पन्नों में लुक्का छुप्पी का खेल खेलता है और झूठ पहले पन्ने पर विराजमान जनता की मजबूरी से सनी मूर्खता पर हंसता है। पन्ने पर छपे चेहरे भी मुस्कुरा रहे होते हैं। कौन किस पर हंस रहा होता है यह रहस्य पन्नों के पलटने के साथ हीं मुख्य समाचार के पहले बड़े अक्षर में गुम हो जाता है। बड़े-बड़े सुशिक्षित और किर्ति प्राप्त पत्रकारों के व्याख्यान में खबर की सच्चाई नहीं सरकार के काले कमाई की महक उठती है। वहीं दूसरी ओर गांधी जी नोट पर मुस्कुराते हुए सब देख रहे होते हैं। गांधी जी के नोट पर मुस्कुराने और प्रधान सेवक के अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर मुस्कुराने में सैद्धांतिक भेद है। एक चेहरा गरीब और अमीर दोनों के साथ मुस्कुरा रहा है। और दूसरा सत्ता के सिंहासन पर विराजमान गरीब जनता को ढेंगा दिखा रहा होता है और अमीरों को पालने में झुलाता है। हां दोनों का गुजरात से ताल्लुक अवश्य है और मैं निजी तौर पर इसे अपवाद मानता हूं। क्योंकि दोनों विल्कुल विपरीत हैं। एक के पास सत्य और अहिंसा से सजी और लिपटी लंगोट है। शांत श्रीमुख अहिंसावादी व्यक्तित्व है तो वहीं दूसरा झूठ के सूट और भ्रष्टाचार के बूट में कपटी मुस्कान लिए सत्ताजिवी, विज्ञापन प्रेमी सेवक। जहां हर कार्य का विज्ञापन है। विज्ञापन और कार्य को तराजू में तौलने पर जहां विज्ञापन जीत जाए ऐसी योजनाएं है। जहां टीवी पर बैठ चिखते चिल्लाते न्यूज एंकर सरकार के विज्ञापन पर सरकार की बोली बोल रहे हैं। जहां गांधी को गाली और गांधी के नाम पर स्वयं को प्रथम सेवक कहने वालों के लिए अलंकृत शब्दों की पुष्प वर्षा हो रही है। जहां पत्रकारों की कलम की स्याही सूख चुकी है। उसमें पैसों की खन-खन अपना स्थान ले चुकी है। शायद यहीं कारण है कि अक्सर खबरें आतीं हैं कि रूपए से गांधी की तस्वीर हटा दी जाएगी। मैं कहूं तो यह गांधी जी के लिए सम्मानजनक की सिद्ध होगा। गांधी की मुस्कुराती तस्वीर शायद भ्रष्टाचारियों को अधिक प्रसन्नता भरी नजर आती होगी। शायद उन्हें गांधी का हंसना खटकता होगा। उन्हें गांधी की इमानदारी से शर्म महसूस होती होगी। शायद यहीं कारण है कि उन्हें गांधी से थोड़ी खीझ है। क्योंकि गांधी जैसा होना और गांधी हो जाना। गांधी के बारे में जानना और गांधी को समझना दोनों में अति भेद है। जितना खादी पहन लेने और उसे स्विकार कर लेने में। इसी कारण बुद्धिजीवी पत्रकार भी जो कभी गांधी की नीतियों का सम्मान किया करते थे वो उन्हें अपशब्द कहते नहीं थकते। यहीं कारण है कि देश में किसी भी अहम मुद्दों (भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, मंहगाई, भेदभाव, धार्मिक द्वेष) आदि पर चर्चा नहीं होती यहां तक कि सरकार से प्रमुख प्रश्न भी नहीं पूछे जाते। जहां पत्रकार अपने अस्तित्व को सरकार के पैरों तले स्वयं की ताकत को शून्य कर अस्तित्व विहिन होने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसका मूल कारण गांधी का कांग्रेस से होना भी समझा जा सकता है। क्योंकि जब गांधी संघ की तारीफ करते हैं तो वह शांतिदूत बन जाते हैं और जब धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो गूंगे,डरपोक, कमजोर। या उनके पास 56 इंच के सीने का ना होना भी एक मूल कारण हो सकता है। क्योंकि 56 इंच वाले से सवाल पूछने की हिम्मत मुझे आज के बड़े-बड़े पत्रकारों में नजर नहीं आती। उम्मीद है हम 100 तक की गिनती में से 56 को भूल आगे बढ़ेंगे। 56 से डरेंगे नहीं उस 56 इंच वाले से 56 जन मानस के प्रश्न 56 तरीके से पूछेंगे।

Sunday, June 13, 2021

सजीवता का झुलसना इस देश की जनता की दीनता को प्रदर्शित करता है -पीयूष चतुर्वेदी

भारत देश विविधताओं का देश है। वर्षों से इस राष्ट्र ने अनेकता में एकता की पराकाष्ठा को सजीव रखा है। अब धीरे-धीरे इसकी सजीवता सूखती जा रही है। मानों गर्म हवा की तपिश ने मानव रूपी पौधे को जड़ से समाप्त करने की ठान रखी हो। सजीवता का झुलसना इस देश की जनता की दीनता को प्रदर्शित करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हम सभी कानून की गिरह में जकड़े होते हैं। सभी के कार्य क्षेत्र, स्वतंत्रता,अधिकार आदि की एक सीमा होती है। परंतु इन सीमाओं की परिधि में मात्र आम जनता कैद है। लोकतंत्र के पुरोधा परिधी के बाहर टिके सब कुछ अपनी व्यवस्था और सुविधा के अनुसार लागू करने की जुगत में लगे हैं। वो सभी पुरोधा स्वयं को राष्ट्र का सेवक कहते हैं। यह कहना भी उनकी स्वयं की घोषणा है। राष्ट्र का निर्माण जनता से होता है। खादी में जनता के सेवक हैं और खाकी में जनता के नौकर। आम जनता की कोई वेषभूषा नहीं। वह कानून की ककहरा रटते राष्ट्र के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी को निभाने में व्यस्त है। अफसोस इस बात का है कि जो खादी में हैं वह चुनाव मात्र तक सेवक हैं और जो खाकी में है उनकी ईमानदारी पर गहराया संदेह आजादी के इतने वर्षों बाद भी प्रगाढ़ है। इसके पिछे का मौलिक रहस्य यह भी है कि देश में न कभी कोई प्रधानमंत्री हुआ न जनता कभी मूल रूप से जनता रही। उस शिर्ष पद पर पहुंचने वाला हर नेता वृहद बेहयाई से स्वयं को प्रथम सेवक, राष्ट्र भक्त, राष्ट्र चिंतक, राष्ट्र सेवक, युवा हृदय सम्राट, प्रधान सेवक यहां तक की कुछ ने तो स्वयं को चौकीदार की भी भाव-भंगिमा से सजाया। बस जनता उसकी कुटिलता से इतर अपने नमक रोटी में इतनी व्यस्त रहती है की वह भूल बैठी कि उसे प्रधानमंत्री चुनना है या स्वयंभू सम्राट। शायद इसमें जनता का भी दोष नहीं। क्यों कि जनता भी कभी जनता नहीं रही। कभी हिंदू तो कभी मुस्लिम, कभी सिक्ख तो कभी ईसाई। कहीं राम जी का धनुष और परशुराम जी का फर्शा, कहीं अल्लाह और मुहम्मद साहब के नाम पर बंदूकों की गोलिबारी और बमबारी। यह तो मात्र धार्मिक टकराव है। तिलक तराजू और तलवार की अपनी अलग लड़ाई है। इस लड़ाई में हरिजन की उपस्थिति इसे इतना मारक बनाती है कि सेवको का शासन करना प्राकृतिक रूप से और भी सहज हो जाता है। इसी सहजता का यह परिणाम है कि निर्जिविता पनप रही है। जनता के अधिकार कागजों में अंगड़ाई लिए स्याही की चादर ओढ़े सो रहे हैं और सड़कों पर उनके अधिकारों का डंडे से स्वागत किया जा रहा है। जहां राजद्रोह और राष्ट्रदोह को एक हीं आईने से दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसा मात्र इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि हमारे देश में ना हीं कोई मौलिक प्रधानमंत्री है न कोई जनता। उम्मीद है हम पुनः अपनी दुर्दशा पर चिंतन कर गलतियों को गंगा में बहा एक सुव्यवस्थित और सुसंगठित चुनाव में हिस्सा लेंगे जहां जनता अपने प्रधानमंत्री को चुनेगी। जहां हम मुखर होकर कहेंगे कि नहीं चाहिए हमें सेवक। हम अपना बोझ उठाने के काबिल है। हम प्रधानमंत्री चाहिए जो राष्ट्रहित में फैसला ले। जनता का सम्मान करे। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Thursday, May 20, 2021

वह दिन दूर नहीं जब विश्वगुरु भारत में तीसरे प्रकार के आपातकाल की चर्चा होगी- पीयूष चतुर्वेदी

अक्सर हमारे बीच आपातकाल की चर्चा होती है। अब तक इसकी घोषणा एक बार हीं हुई है। १९७५-१९७७ माननीया भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा। इस विषय पर तरह-तरह की बातें सुनने को मिलती हैं। विपक्ष के दमन से लेकर प्रशासन के कर्म तक के किस्सों को हमनें अपने कानों से सुना है। बड़े-बुजुर्ग आंखों देखा हाल भी बताते हैं। इंदिरा की हार और जेपी आंदोलन की जीत की कहानियां न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों में खूब दिखती और छपती थीं लिखने और बोलने वाले तब भी नहीं डरे। कलम की ताकत ने इंदिरा जी के अहम को काट कर रख दिया था। लोग आज भी उन किस्सों को पढ़ते हैं। घंटों आंखें टीवी पर टीका मंथन करते हैं। उन दिनों की कल्पना कर चिंता करते हैं और भूल जाते हैं। हमारे भूलने की बिमारी ने हमें इतना सहनशील बना दिया कि हम हर प्रकार की समस्या को छुपाना सीख गए। सही-गलत के परिधी को स्वयं तक सिमटा बैठे। निज कल्याण की भावना में सोच सिमीत कर बैठे। उसके साथ जिने के लती बन बैठे। इसी का आज यह परिणाम है कि सरकार के खिलाफ बोलना देश के खिलाफ बोलना हो गया। सत्ता के खिलाफ बोलने वाली जनता के अधिकारों का हनन जनता के प्रधान सेवक की छवि सुधारने के लिए की जा रही है। एक साधारण रिक्सा चालक भी सेवक के लिए खतरा बन चला है। खेतों में अपनी फसल काटने वाला गरीब किसान ने सत्ताजीवियों के दिल्ली दरबार में भूचाल ला दिया है। वास्तव में आपातकाल को दो श्रेणियों में बांटने की आवश्यकता है। घोषित एवं अघोषित। घोषित का परिणाम और किस्से हमें देखने और सुनने को मिलता है। कलम की स्याही उसे लोकतंत्र का काला अध्याय कहकर संबोधित करती है। और अघोषित के परिणाम को सभी देखते हैं लेकिन चंद मुठ्ठी भर लोग अपनी आवाज बुलंद करते हैं। रूपए की कलम से इस स्थिति में भी सेवक का श्रृंगार किया जाता है। उनकी छवि को अलंकृत किया जाता है। प्रज्ञा हीन भावना को बढ़ावा देता एक माध्यम उसका गुणगान करता है। और जनता अपने भीतर डर लिए मौन बैठी रहती है। बोलने की स्थिति में कारागार का डर और न बोलने की स्थिति में वर्तमान का डर। लोकतांत्रिक देश में आपातकाल की कोई मूल स्थिति नहीं होनी चाहिए। दूसरे झरोखे से देखें तो है भी नहीं। उसके लगने-लगाने का कारण तो बहाना मात्र है। जब विश्व के महानतम लोकतांत्रिक देश में जनता के भीतर सेवक के शासनादेश से डर की उत्पत्ति हो जाए समझ लेना आपातकाल की स्थिति है। फिर क्या पक्ष,क्या विपक्ष? जब डर हीं डर सर्वत्र। वह दिन दूर नहीं जब विश्वगुरु भारत में तीसरे प्रकार के आपातकाल की चर्चा होगी जिसे स्वघोषित आपातकाल की संज्ञा दी जाएगी।
-पीयूष चतुर्वेदी

Friday, February 19, 2021

तंत्र-मंत्र

कितना कुछ लिखा जाता है? कितना कुछ छापा जाता है? कितनी बातें कहीं जाती हैं। हम वो सारा सुनते हैं फिर दूसरे को सुनाते हैं इस बीच हम उसका पालन करना भूल जाते हैं। उसका पालन वहीं चंद लोग करते हैं जो सिर्फ सुनते हैं किसी को सुनाते नहीं। या उनकी सुनने वाला कोई नहीं होता। सरकारी फाइलों में पतली कलम से लिखी बातें जब दीवारों पर मोटे-मोटे अक्षरों में उकेरी जाती हैं तो उतना हीं मोटा पैसा जनता का खर्च किया जाता है। जनता का पैसा जनता को हीं जगाने के लिए खर्च किया जाता है।
यदि जनता स्वयं जागना शुरू कर दे तो उसका पैसा सरकारी फाइलों को सजाने में खर्च ना हो। कुछ बातों को हमारे जीवन में आदत की तरह होना चाहिए जिसके बिना सब अधूरा लगे। सांस लेने की जरूरतों की तरह जिसके बिना हमें घुटन महसूस होने लगे। शायद यह जनता का दोष है और उसकी निष्क्रियता है जिसने उसे इतना कमजोर और विवेकहीन बना दिया है कि वह उस निंद से जागना हीं नहीं चाहता जो वह किसी रूढ़ीवादी लोरी को सुनकर सोया था। उस निंद में जिसके अच्छे की चाहत खुद उसे नहीं बल्कि सरकार को है। जो नारे के रूप में आवाज़ बनकर निकालती है और दीवारों पे छपकर उसी के रंग में मिल जाती है। इस व्यवस्था में एक तंत्र द्वारा मोहक मंत्र का गान किया जाता है जिस बीच एक हल्का धुंधला सा परिवर्तन होता है जहां कुछ भी स्वच्छ नजर आना मुश्किल है। उसी धुंधलके में हमारे देश में चुनाव होता है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

http://sankalpsavera.com/elections-take-place-in-our-country-in-the-same-blur-piyush-chaturvedi/ *कितना कुछ लिखा जाता है? कितना कुछ छापा जाता है? कितनी बातें कहीं जाती हैं। हम वो सारा सुनते हैं फिर दूसरे को सुनाते हैं इस बीच हम उसका पालन करना भूल जाते हैं*

Saturday, November 14, 2020

कोई बोल रहा है

समीर कोई बोल रहा है।
जोर-जोर से तेज आवाज में बोल रहा है। 
लोग तालियां बजा रहे हैं... कोई बोले जा रहा है। 
वो थकता नहीं बोले जा रहा है...देखो ना समीर कोई झूठ बोल रहा है। 
हमारे आसपास लोग सच सुन नहीं रहे या कोई बोल नहीं रहा का ज़बाब अब मिलने लगा है समीर। 
नहीं नम्रता कोई नहीं है वहां। सब तुम्हारा वहम है। 
नहीं समीर कोई बोल रहा है बड़ी सफाई से एक बड़े से मंच से एक बड़ी सी भीड़ में जिस भीड़ से उठते हर झूठ को एक बड़े से माध्यम ने सच में बदल दिया है। 
मुझे इस झूठ में घुटन हो रही है समीर मेरी सच की सांसें मरती जा रही हैं। 
नहीं नम्रता... विन्रम बनों माना सब झूठ है पर सच भी तो है। 
नहीं समीर झूठ हवा में फ़ैल चुका है त्रासदी लिए किसी वायरस की तरह...।
जहां सच..झूठ पर जाकर खत्म हो रहा है और झूठ कहीं दूर सत्ता की कुर्सी पर। 
नहीं नम्रता ऐसा पहले भी तो था पहले भी तो झूठ हवा में फैली है हमनें उसमें सांसे लीं हैं। 
हां समीर लेकिन अब झूठ जिंदगी से बड़ी हो चुकी है। 
चलों हम कहीं दूर चलें समीर।
तुम हवा में घुल जाओ और मैं तुम में विनम्रता से मिल जाऊं। 
और वहां चल चलें जहां जीवन बड़ा हो झूठ नहीं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Saturday, July 11, 2020

सरकार, व्यवस्था,जनता

सरकारें सालों से वादा करती रही। सब कुछ बेहतर होने के। आगे और बेहतर करने की।
सरकार द्वारा किए गए विकास में सरकारी लोग की हिस्सेदारी बनीं। ऐसी हिस्सेदारी जिसमें आम जनता के लिए सुविधाएं कम और जनता के सेवक बनें सज्जन पूरा चप कर गए। 
बेशर्मी इतनी की पूछो तो फिर विकास की गिनती पढ़ बैठें। 
पर वह उस गिनती में नहीं आते। 
उनके लिए अलग सुविधाएं होती हैं। शायद किसी जिला अस्पताल में किसी सांसद का इलाज होता आम जनता के बीच। तो खबर मिलती विकास की।
सरकारी स्कूलों में बस्ता ढ़ोता उनका बच्चा समझ पाता की वास्तव में विकास किस बिमारी से झेल रहा है?
पर सब मुफ्त पाकर कहते हैं जनता को सब मुफ्त चाहिए। अरे साहब कभी विकास से हीं पूछ लिए होते वह कहां रह गया देश के आजादी के इतने साल बाद भी? कभी अपनी मुफ्त खोरी पर भी नजर डाल लेते जो अब तक चाभते आ रहे हो। 
लेकिन ऐसा करे कौन? आम जनता की बात करने वाले जनता के सेवक, न जाने कब बाघ बन बैठे इसका पता न जनता को चला न संविधान को। पर होता आया, हो रहा है और होता रहेगा। 
और जनता.......जनता लगी है लंबी कतार में कहीं। 
५ साल में एक बार वोट देने के लिए लगती है। फिर लगती हीं रहती है वो लाइन फिर न जाने कब वापस चुनाव की लाइन बन जाती है। राम जाने।
सुना है भगवान सब जानते हैं। पर भगवान भी अब इंतजार में हैं किसी वादे के।
और जनता कतार में हैं। चल रही है अपनी धीमी चाल से सरकार की ऊंगली पकड़।
जनता की हक की बात करने वाले उनका हक मार सबसे बड़े हकदार बन बैठे। 
और एक खास वर्ग इंतजार में है अब भी टीवी पर विज्ञापन देख उसके आसपास के जीवन जीने की लालसा में।

Tuesday, June 9, 2020

अब से कब तक?

मेरा भारत महान।।। तब से अब तक...... अब से कब तक... ? पता नहीं। कभी था। पर अब नहीं। ढूंढ़ता हूं। आज भी पर मिलता नहीं। मानों जैसे देश की महानता किसी कुर्ते के जेब में जा अटकी हो। एक समय पर जिसे उसकी जरूरत होती है वह उसे खर्च कर देता है। बहुत हीं कम अनुपात में। ५ वर्ष में एक बार। फिर बाकी के दिनों में एक लंबा इंतजार होता है। परेशानी अपनी कंधे पर लिए दौड़ती जिंदगीयां चुनाव के समय वापस महानता के दर्शन करती है। वादे होते हैं। तु-तु मैं-मैं होती है। आरोपोंं का खो-खो खेला जाता है। फिर एक दौड़ होती है महान बनने की। जिसे महान मान लिया जाता है उसके हाथ लगती है गद्दी। और दूसरा अपनी महानता, देश की महानता, असल जिंदगी की परेशानियों से सजे धुन में गाना गाता रहता है तब तक, जब तक गद्दी ना मिल जाए। और जनता देखती रहती है लोगों को महान बनते। देश को महान बनते। अपने रेखाओं में लगती स्याही से दूसरों की महानता की कहानी लिखता है। मेरा भारत महान??? सबका योगदान। पर क्या सब एक समान?????? -पीयूष चतुर्वेदी Https://itspc1.blogspot.com

Sunday, January 5, 2020

ख़बरें

यहां दो तश्वीर है एक सभी पहचानते हैं और दूसरा एम. ओ. मिथाई, जवाहर लाल नेहरू जी के निजी सचिव। माननीय ने अपने किताब Reminiscences of the Nehru Age में इंदिरा जी से संबंधित आपत्तिजनक बातें लिखी हैं ऐसा दावा किया जा रहा है और इनसे अवैध संबंध होने के भी तथा ऐसी बातें जिन्हें कहना बहुत आपत्तिजनक होगा। लेकिन अब वो हिस्सा किताब में नहीं है। प्रकाशन कहता है ऐसा कुछ हमने छापा नहीं। फिर ये बातें आई कहां से? लोगों ने तरह-तरह की बातें भी की और 2017 से कुछ ज्यादा हीं। महिलाओं के सम्मान की बात करने वाले लोगों ने भी जमकर हाथों हाथ लिया। कुछ ने चरित्र पर सवाल खड़े कर दिए सिर्फ किताबों के ऊपर जिसमें कुछ था हीं नहीं। और यदि था फिर भी जो हो रहा है क्या वो सही है? कल को कोई भी किसी के बारे में कुछ भी लिखकर या बोलकर किसी का भी चरित्र हनन कर सकता है और वाह-वाह करने वाले ध्यान दें अगला नंबर आपका भी हो सकता है।

Thursday, July 4, 2019

जिम्मेदार कौन?



आज का जो विषय है उस पर एक खास वर्ग अपनी सहमति नहीं जताएगा लेकिन सच्चाई को तो छुपाया नहीं जा सकता लेकिन एक वादा है कि विषय पर बहुत से लोग खुद को जोड़ पाएंगे। विषय है चिकित्सा का और भी एक कदम आगे चिकित्सक का। बिते दिनों १ जुलाई को चिकित्सक दिवस पूरे देश ने मनाया और हो भी क्यों न भगवान की संज्ञा उनके कर्मों के आधार पर ही प्रदान की गई है। और कुछ दिनों पहले कुछ चिकित्सकों पर बंगाल में हमला हुआ जो निंदनीय है जिसका विरोध सभी ने किया और सबसे ऊपर उठकर उन्होंने ने भी इसका स्वयं से पुरजोर विरोध किया जो सही भी है। अब बात उसकी करते हैं जो सही नहीं है। और उसका जिम्मेदार कौन है? यह भी समझना होगा चिकित्सक,, चलिए डाक्टर पर आते हैं भारत में वर्तमान समय में यह शब्द ज्यादा प्रचलित है। डाक्टर को भगवान कहा जाता है और सही भी है वह बिमार लोगों की रक्षा करते हैं। लेकिन किस किमत पर? क्या सभी उस रक्षा के हकदार बन पाते हैं? क्योंकि भारत में किसी भी बिमारी का इलाज महंगा नहीं उसे महंगा बनाया जाता है। जो खेल बड़ी-बडी़ निजी कंपनियों से शुरू होकर आम आदमी के जेब से होते हुए डाक्टर के बैंक खातों तक पहुंचता है। जिसमें सरकार भी जिम्मेदार है जिस देश में ऐसी व्यवस्था लाई जा सकती है सभी देश वासियों का सस्ते में इलाज हो सके फिर कुछ लाख या करोड़ लोगों के लिए स्वास्थय बीमा क्यों? सस्ते दवाओं की जगह अतिमुनाफे के लिए महंगी दवाईयां क्यों? निजी अस्पतालों के लूट को लेकर सरकार अंधी क्यों? अगर देश के जनप्रतिनिधियों का सारे उम्र स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं जो जनता क्यों मरती है? कहीं डाक्टर की महंगी इलाज से तो कहीं महंगाई के कारण इलाज ही नहीं मिल पाने से? और भारत की चिकित्सा व्यवस्था इतनी महान है तो अस्पतालों में इतनी भीड़ क्यों? बड़े-बड़े लोग और राजनेता भी शामिल हैं विदेशों में इलाज कराने जाते हैं मगर क्यों? कुछ लोग कहेंगे ये उस लायक है लेकिन मैं मानता हूं हम सब ने इन्हें इस लायक बनाया है और ये हमारे हक की रोटी हमसे छीन रहे हैं। जिसमें सरकार की पहली जिम्मेदारी बनती है लेकिन उस चिकित्सक का क्या जिसने सरकार की नाकामियों को अपनी झूठी कामयाबी का रास्ता बना दिया जिसने सरकार से ज्यादा बुरी तरह से जनता का शोषण किया। क्या वास्तव में वह भगवान का रुप हो सकता है? या बस एक व्यवसाई जो अपने फायदे के लिए दूसरे का हक छीन सकता है उसे इलाज के नाम पर बरबाद कर सकता है।

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सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा।  हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल?  का पता हो,...