हमें ठगा गया है।
सरकार और सरकारी तंत्र ने हमें अतीत के नाम पर डराया है। कलयुग में त्रेता की बात कर हमें द्वापर के मायाजाल में फंसाया गया है। चुनावी मुद्दों को आस्था का जुमला पहना हमारी मूलभूत आवश्यकताओं को हमसे दूर रखने का चलित षड्यंत्र किया है। रामराज्य की कल्पना को दर्शा रावण राज्य के सपनों को समाप्त किया है। यदि मुद्दों को धर्म का चोला पहनाना था, युगों में भटकाना था तो प्रथम वरियता रावण राज्य को देना था।
स्वर्ण की लंका।
धन की अधिकता।
सुख समृद्धि से सजा जनता का सौभाग्य।
नारी का सम्मान।
जनता की खुशी।
परंतु युग पुरुष व्यक्तित्व से सुसज्जित प्रधान सेवक ने रामराज्य की कल्पना में जिस प्रकार के यथार्थ से हमें अवगत कराया है उसकी आवश्यकता शायद लंका में भी नहीं।
फिर भी हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारत देश में रहते हैं। जहां सभी संसदीय पद्धति से जुड़ा व्यक्ति सेवक है। कोई प्रधान तो कोई निम्न। हमें आज भी आवश्यकता है प्रधानमंत्री की।
प्रथम सेवक से प्रधान सेवक तक का भारत रामराज्य के वादों में झूल रहा है।
या सत्यता को वास्तविकता में डालने का प्रण लिए बाबा को "दिया और बाती" हीं नजर आता हो। मानों सेवक का संसार सजाए बैठे लोग सेवा करना हीं भूल गए हों। या सेवक भी देवताओं का रूप धर इंद्र बन बैठे हों। जहां चुनाव हारने का खतरा उन्हें देव तुल्य जनता के समक्ष रोता छोड़ देती है और सत्ता हाथ लगते हीं अप्सराओं का रंगमंच और मदिरा का रंग जमता है।
-पीयूष चतुर्वेदी