आज का जो विषय है उस पर एक खास वर्ग अपनी सहमति नहीं जताएगा लेकिन सच्चाई को तो छुपाया नहीं जा सकता लेकिन एक वादा है कि विषय पर बहुत से लोग खुद को जोड़ पाएंगे। विषय है चिकित्सा का और भी एक कदम आगे चिकित्सक का। बिते दिनों १ जुलाई को चिकित्सक दिवस पूरे देश ने मनाया और हो भी क्यों न भगवान की संज्ञा उनके कर्मों के आधार पर ही प्रदान की गई है। और कुछ दिनों पहले कुछ चिकित्सकों पर बंगाल में हमला हुआ जो निंदनीय है जिसका विरोध सभी ने किया और सबसे ऊपर उठकर उन्होंने ने भी इसका स्वयं से पुरजोर विरोध किया जो सही भी है। अब बात उसकी करते हैं जो सही नहीं है। और उसका जिम्मेदार कौन है? यह भी समझना होगा चिकित्सक,, चलिए डाक्टर पर आते हैं भारत में वर्तमान समय में यह शब्द ज्यादा प्रचलित है। डाक्टर को भगवान कहा जाता है और सही भी है वह बिमार लोगों की रक्षा करते हैं। लेकिन किस किमत पर? क्या सभी उस रक्षा के हकदार बन पाते हैं? क्योंकि भारत में किसी भी बिमारी का इलाज महंगा नहीं उसे महंगा बनाया जाता है। जो खेल बड़ी-बडी़ निजी कंपनियों से शुरू होकर आम आदमी के जेब से होते हुए डाक्टर के बैंक खातों तक पहुंचता है। जिसमें सरकार भी जिम्मेदार है जिस देश में ऐसी व्यवस्था लाई जा सकती है सभी देश वासियों का सस्ते में इलाज हो सके फिर कुछ लाख या करोड़ लोगों के लिए स्वास्थय बीमा क्यों? सस्ते दवाओं की जगह अतिमुनाफे के लिए महंगी दवाईयां क्यों? निजी अस्पतालों के लूट को लेकर सरकार अंधी क्यों? अगर देश के जनप्रतिनिधियों का सारे उम्र स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं जो जनता क्यों मरती है? कहीं डाक्टर की महंगी इलाज से तो कहीं महंगाई के कारण इलाज ही नहीं मिल पाने से? और भारत की चिकित्सा व्यवस्था इतनी महान है तो अस्पतालों में इतनी भीड़ क्यों? बड़े-बड़े लोग और राजनेता भी शामिल हैं विदेशों में इलाज कराने जाते हैं मगर क्यों? कुछ लोग कहेंगे ये उस लायक है लेकिन मैं मानता हूं हम सब ने इन्हें इस लायक बनाया है और ये हमारे हक की रोटी हमसे छीन रहे हैं। जिसमें सरकार की पहली जिम्मेदारी बनती है लेकिन उस चिकित्सक का क्या जिसने सरकार की नाकामियों को अपनी झूठी कामयाबी का रास्ता बना दिया जिसने सरकार से ज्यादा बुरी तरह से जनता का शोषण किया। क्या वास्तव में वह भगवान का रुप हो सकता है? या बस एक व्यवसाई जो अपने फायदे के लिए दूसरे का हक छीन सकता है उसे इलाज के नाम पर बरबाद कर सकता है।
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Thursday, July 4, 2019
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