सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, August 6, 2021

गांधी जी के नोट पर मुस्कुराने और प्रधान सेवक के अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर मुस्कुराने में सैद्धांतिक भेद है -पीयूष चतुर्वेदी


आज भी अक्सर जन नेताओं को नेतागिरी से ऊपर उठकर बात करने देखता हूं। ऊंचे मंचों से उनके झूठे वादों और दमदार भाषण को सुनता हूं। मेरे सुनने और मेरे चुनने के मध्य एक माध्यम होता है। उस माध्यम को बुद्धिजीवी वर्ग ने मिडिया का नाम दिया है। यह मिडिया कभी पसीने से भिंगे सर्ट पहन बोलता हुआ, कभी सफेद पन्नों स्याही उल्हेड़ लिखता हुआ नजर आया करता था। लेकिन आज मेरी नजरें पन्नों पर उस सच्ची स्याही को ढूंढती हैं जो बीते कुछ वर्षों से नजर नहीं आ रहा। सच कहीं डरा हुआ बीच के पन्नों में लुक्का छुप्पी का खेल खेलता है और झूठ पहले पन्ने पर विराजमान जनता की मजबूरी से सनी मूर्खता पर हंसता है। पन्ने पर छपे चेहरे भी मुस्कुरा रहे होते हैं। कौन किस पर हंस रहा होता है यह रहस्य पन्नों के पलटने के साथ हीं मुख्य समाचार के पहले बड़े अक्षर में गुम हो जाता है। बड़े-बड़े सुशिक्षित और किर्ति प्राप्त पत्रकारों के व्याख्यान में खबर की सच्चाई नहीं सरकार के काले कमाई की महक उठती है। वहीं दूसरी ओर गांधी जी नोट पर मुस्कुराते हुए सब देख रहे होते हैं। गांधी जी के नोट पर मुस्कुराने और प्रधान सेवक के अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर मुस्कुराने में सैद्धांतिक भेद है। एक चेहरा गरीब और अमीर दोनों के साथ मुस्कुरा रहा है। और दूसरा सत्ता के सिंहासन पर विराजमान गरीब जनता को ढेंगा दिखा रहा होता है और अमीरों को पालने में झुलाता है। हां दोनों का गुजरात से ताल्लुक अवश्य है और मैं निजी तौर पर इसे अपवाद मानता हूं। क्योंकि दोनों विल्कुल विपरीत हैं। एक के पास सत्य और अहिंसा से सजी और लिपटी लंगोट है। शांत श्रीमुख अहिंसावादी व्यक्तित्व है तो वहीं दूसरा झूठ के सूट और भ्रष्टाचार के बूट में कपटी मुस्कान लिए सत्ताजिवी, विज्ञापन प्रेमी सेवक। जहां हर कार्य का विज्ञापन है। विज्ञापन और कार्य को तराजू में तौलने पर जहां विज्ञापन जीत जाए ऐसी योजनाएं है। जहां टीवी पर बैठ चिखते चिल्लाते न्यूज एंकर सरकार के विज्ञापन पर सरकार की बोली बोल रहे हैं। जहां गांधी को गाली और गांधी के नाम पर स्वयं को प्रथम सेवक कहने वालों के लिए अलंकृत शब्दों की पुष्प वर्षा हो रही है। जहां पत्रकारों की कलम की स्याही सूख चुकी है। उसमें पैसों की खन-खन अपना स्थान ले चुकी है। शायद यहीं कारण है कि अक्सर खबरें आतीं हैं कि रूपए से गांधी की तस्वीर हटा दी जाएगी। मैं कहूं तो यह गांधी जी के लिए सम्मानजनक की सिद्ध होगा। गांधी की मुस्कुराती तस्वीर शायद भ्रष्टाचारियों को अधिक प्रसन्नता भरी नजर आती होगी। शायद उन्हें गांधी का हंसना खटकता होगा। उन्हें गांधी की इमानदारी से शर्म महसूस होती होगी। शायद यहीं कारण है कि उन्हें गांधी से थोड़ी खीझ है। क्योंकि गांधी जैसा होना और गांधी हो जाना। गांधी के बारे में जानना और गांधी को समझना दोनों में अति भेद है। जितना खादी पहन लेने और उसे स्विकार कर लेने में। इसी कारण बुद्धिजीवी पत्रकार भी जो कभी गांधी की नीतियों का सम्मान किया करते थे वो उन्हें अपशब्द कहते नहीं थकते। यहीं कारण है कि देश में किसी भी अहम मुद्दों (भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, मंहगाई, भेदभाव, धार्मिक द्वेष) आदि पर चर्चा नहीं होती यहां तक कि सरकार से प्रमुख प्रश्न भी नहीं पूछे जाते। जहां पत्रकार अपने अस्तित्व को सरकार के पैरों तले स्वयं की ताकत को शून्य कर अस्तित्व विहिन होने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसका मूल कारण गांधी का कांग्रेस से होना भी समझा जा सकता है। क्योंकि जब गांधी संघ की तारीफ करते हैं तो वह शांतिदूत बन जाते हैं और जब धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो गूंगे,डरपोक, कमजोर। या उनके पास 56 इंच के सीने का ना होना भी एक मूल कारण हो सकता है। क्योंकि 56 इंच वाले से सवाल पूछने की हिम्मत मुझे आज के बड़े-बड़े पत्रकारों में नजर नहीं आती। उम्मीद है हम 100 तक की गिनती में से 56 को भूल आगे बढ़ेंगे। 56 से डरेंगे नहीं उस 56 इंच वाले से 56 जन मानस के प्रश्न 56 तरीके से पूछेंगे।

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