सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, November 19, 2021

"सेवक की संवेदना और संवेदनशीलता"


आम जन इस भाषा से बचपन से जुड़े होते हैं। इस भाव के साथ बड़े होते हैं कि उनके भीतर संवेदना समाहित है। हर क्षण हृदय में उसकी उपस्थिति को महसूस करते हैं। परंतु विश्व के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले राष्ट्र में स्वघोषित राष्ट्रनिर्माता नेताओं और प्रधान सेवक की संवेदना चुनाव से ठीक पहले जागता है। वह सो रहा होता है कहीं लालच की चादर ओढ़ जब देखता है कोई खींच रहा है उसकी निंद को तो वह संवेदनशील हो जाता है। शायद निंद में निंदा को स्विकार करने की क्षमता नहीं रहती होगी? या चौकादारी के नशे में अहम का अफीम महकता होगा। या संवेदना मौत की चौखट पर आंखें गड़ाए खड़ी होगी कि शरीर शांत हो और संवेदना चौखट लांघ जाए। या किदवंती कथाओं सा अमर,अमिट विश्वास होगा जो बलिदान की भूखी हो जो बेकसूर लोगों की मृत्यु के बाद सेवकों के कंठो में घर कर जाती है। हमें यह समझना होगा कि यह मात्र आरंभ है। अंत कहीं अब भी दिल्ली दरबार में कुर्सी पर शतरंज की बिसात बिछा रहा है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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