सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, February 19, 2021

तंत्र-मंत्र

कितना कुछ लिखा जाता है? कितना कुछ छापा जाता है? कितनी बातें कहीं जाती हैं। हम वो सारा सुनते हैं फिर दूसरे को सुनाते हैं इस बीच हम उसका पालन करना भूल जाते हैं। उसका पालन वहीं चंद लोग करते हैं जो सिर्फ सुनते हैं किसी को सुनाते नहीं। या उनकी सुनने वाला कोई नहीं होता। सरकारी फाइलों में पतली कलम से लिखी बातें जब दीवारों पर मोटे-मोटे अक्षरों में उकेरी जाती हैं तो उतना हीं मोटा पैसा जनता का खर्च किया जाता है। जनता का पैसा जनता को हीं जगाने के लिए खर्च किया जाता है।
यदि जनता स्वयं जागना शुरू कर दे तो उसका पैसा सरकारी फाइलों को सजाने में खर्च ना हो। कुछ बातों को हमारे जीवन में आदत की तरह होना चाहिए जिसके बिना सब अधूरा लगे। सांस लेने की जरूरतों की तरह जिसके बिना हमें घुटन महसूस होने लगे। शायद यह जनता का दोष है और उसकी निष्क्रियता है जिसने उसे इतना कमजोर और विवेकहीन बना दिया है कि वह उस निंद से जागना हीं नहीं चाहता जो वह किसी रूढ़ीवादी लोरी को सुनकर सोया था। उस निंद में जिसके अच्छे की चाहत खुद उसे नहीं बल्कि सरकार को है। जो नारे के रूप में आवाज़ बनकर निकालती है और दीवारों पे छपकर उसी के रंग में मिल जाती है। इस व्यवस्था में एक तंत्र द्वारा मोहक मंत्र का गान किया जाता है जिस बीच एक हल्का धुंधला सा परिवर्तन होता है जहां कुछ भी स्वच्छ नजर आना मुश्किल है। उसी धुंधलके में हमारे देश में चुनाव होता है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

http://sankalpsavera.com/elections-take-place-in-our-country-in-the-same-blur-piyush-chaturvedi/ *कितना कुछ लिखा जाता है? कितना कुछ छापा जाता है? कितनी बातें कहीं जाती हैं। हम वो सारा सुनते हैं फिर दूसरे को सुनाते हैं इस बीच हम उसका पालन करना भूल जाते हैं*

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