हम स्वतंत्र हैं ना?
रिश्तों के घने जंगल में अपने फैसले लेने के लिए?
प्रदूषित हवा में लंबी,गहरी सांस लेने के लिए?
समाज में फैले शोर में अपनी बात कहने के लिए?
यातायात की लंबी कतार में दो कदम सुकून से चलने के लिए?
कटते पेड़ों से उड़ते चिड़िया के घोंसले सजाने के लिए?
थकी हुई नींद में सुनहरे सपने देखने के लिए?
आज और कल की लड़ाई में अभी को चुनने के लिए?
मौन को सजाकर खुद से मिलने के लिए?
अदनी सी बातों पर बेमतलब पागलों सा हंसने के लिए?
नदी किनारे शांत बैठ बहते पानी में स्वयं को ढूंढने के लिए?
पक्षियों की ध्वनि मधुर ध्वनि में शून्य हो जाने के लिए?
भारी भीड़ में उलझे हुए स्वयं में खो जाने के लिए?
अवसादों से घिरे जीवन में शांति के पल ढूंढ मुस्कुरा लेने के लिए?
सत्ता से नाराज़ होकर सेवक को उसके वादे याद दिलाने के लिए?
हम स्वतंत्र हैं ना?
हम हैं ना?
हमारा होना बाकी है ना?
और यह सच है ना?..
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मैं स्वतंत्र हूं ना यह सारा कुछ लिखने के लिए?
कोई मुक्त है ना लिखा हुआ पढ़ने के लिए?
-पीयूष चतुर्वेदी
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