-पीयूष चतुर्वेदी
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Wednesday, May 5, 2021
महामारी और चुनाव
दो गज दूरी मास्क है जरूरी। जब महामारी ने पूरे विश्व को अपने आगे नतमस्तक कर दिया था। मास्क हमारे दैहिक वस्त्र से भी आवश्यक हो गया था। गंगाजली की शुद्धता भी सैनेटाइजर के समक्ष घोर काल्पनिक नजर आने लगी थी। सभी धार्मिक स्थलों पर ताले लगे हुए थे, अस्पतालों में लंबी लाइनें बिछने लगी थीं। उस दौरान हम यहीं बातें बार-बार दोहराया करते थे। आज भी दोहरा रहे हैं। हमारे जिवन का यह एक मूल मंत्र बन चुका था। सरकार ने इस मंत्र को गढ़ने में करोड़ों रुपए खर्च किए होंगे। महानायक की आवाज में कोरोना की विशेषता को लोगों ने नए आयाम के साथ देखा था। भारत में प्रवेश करते हीं न्यूज चैनलों ने शराब में इसका ढूंढ लिया था फिर कुछ गौ रक्षक और राष्ट्रभक्तों ने गोबर और योग को भी अचूक उपाय बताया इसी दौरान बाबा जी ने दवा हीं बना डाली...खैर बाबा जी की बूटी के साथ मिडिया ने क्या किया और डब्लू एच ओ ने क्या किया किसी से छुपा नहीं। इसी दौरान गुमराह होती आम जनता के चेहरे से मास्क खिसकता गया और चुनाव नजदीक आता गया। मैंने दो-दो मास्क पहनना आरंभ कर दिया था। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने उसके ऊपर से रूमाल भी लपेट ली थी। शायद कोरोना के काल में सत्ता द्वारा फैलाए जा रहे अप्राकृतिक झूठ को हमनें पहले हीं भाप लिया था। सत्ताजिवी दरिंदों ने देश में कोरोना की समस्या अपने भाषणों से सुलझानी प्रारंभ कर दी थी। आम जनता जो पहले रैलियों के भीड़ में शामिल होकर चुनाव के लाइन में खड़ी हो जाती है वह इस बार भी सत्ताजिवी राक्षसों के हाथों ठगी जा रही थी। मैं तो मानता हूं सत्ताजिवी होने से बेहतर आंदोलनजिवी होना है। क्योंकि आंदोलन कर्ता झूठे वादे नहीं करता सत्ता द्वारा किए गए वादों का ज़बाब मांगता है। सत्ता शिर्ष पर विराजमान साधु, संन्यासियों ने कोरोना को ठगना चाहा जैसे आम जनता को ठग लेते हैं लेकिन कोरोना की मजबूरी शायद आम देशवासियों जितनी दयनीय नहीं रही होगी। उसके उदर भूख को नहीं तरसते होंगे। उसके सामने परिवार को पालने की समस्या नहीं होगी। या शायद वह लालची नहीं रहा होगा। या उसकी आवश्यकता मंदिर या मस्जिद नहीं शिक्षा और स्वास्थ्य रही होगी। विकास का जुमला नहीं संपूर्ण विकास रहा होगा। इसी कारण उसने अपनी ईमानदारी को झूठे वादों के मकड़जाल में फंसने नहीं दिया। और सत्ता की बागडोर को झकझोर कर रख दिया। लेकिन हाय रे लालच...सब अब भी वैसा हीं है। अब भी लड़ाईयां उन्हीं बातों की हैं। अब भी विवाद शिक्षा और स्वास्थ्य का नहीं। अब भी देखता हूं सत्ता के मद में चूर राष्ट्र सेवक का अहंकार और भी तीव्र होता जा रहा है लेकिन उसमें आम जनता जल रही है। उनके पास तो व्यवस्थाएं हैं और वो भी मुफ्त। और आम जनता खड़ी है लाइनों में उन्हें सेवक बनाने के एक और झूठे प्रयास में।
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