सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, May 2, 2021

हम इंसान क्यों कहलाते हैं? -पीयूष चतुर्वेदी

हम इंसान कहलाते हैं।
अपनी क्षुधा में निती-अनिती का विचार भूल जाते हैं।
स्वयं के हर्ष में डूबते-उतराते आंखों को मूंद, सड़कों पर बिखरी चिख-पुकार को अनसुना कर गंतव्य को निकल जाते हैं।
हम इंसान कहलाते हैं।
निज जीवन में आनंदित झूठी व्यस्तता के समंदर में तैरते अपनों को भूल जाते हैं।
हम इंसान कहलाते हैं।
अपनों कष्टों का व्यापार सर्वत्र बाजार में कर आते हैं।
इससे इतर अपनी खुशियों की कौड़ीयां बंद कमरे में खनकाते हैं।
हम इंसान कहलाते हैं।
प्रेम, अनुराग की बड़ी-बड़ी बातें कर।
अपने अंदर उबल रहे कपट को छुपाते हैं।
कृतज्ञता को कृतघ्नता से हर पल हराते हैं।
हम इंसान कहलाते हैं।
हमनें शिक्षा ली,हम पढ़े लिखे।
खुद को ज्ञानी कहे जाने पर चौड़ी मुस्कान लिए खूब इतराते हैं।
भले वहां ज्ञान की कृपणता हो।
उसकी दिप्ती में कोई प्रकाश ना हो फिर भी स्वयं को बुद्धिजीवी बताने की लड़ाई में हर बार जीत जाते हैं।
हम इंसान कहलाते हैं।
जानवरों के निकट विद्या नहीं,ज्ञान का अभाव है। सांकेतिक भाषा का अध्ययन और भावनाओं का जगत है। पंक्षियों के पास चुहल, बंद घोंसले से मुक्त आकाश में फैला सुख का संसार है।
हम तो ज्ञान-विज्ञान की परिधि में सिमटे इन सबसे महान हैं। वेद-पुराणों को शब्दशः रटने वाले प्रखर विद्वान हैं। माना प्रेम की धरती उसर है। भावनाओं की प्याली खाली है। मन की किताबें अगोचर हैं। हम फिर भी इंसान हैं?
हम ऐसी झूठी विजय पर क्यों गर्व कर जाते हैं? 
हम इंसान क्यों कहलाते हैं? 
-पीयूष चतुर्वेदी

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