सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Tuesday, June 9, 2020

कितना और कब तक?

कभी पेड़ भी पूछता होगा... बरसात में अपने साथ मिट्टी को बहा ले जाती नदी से। कितना और कब तक? कितना बचा है मेरा जीवन? नदी उस पल बरसात के मद में चूर कहती होगी, बस कुछ दिन और। इस ज़बाब को सुन पेड़ अपनी जड़ों को कसकर जमीन में गाड़े रखता होगा। उसे मालूम है कि वह सुरक्षित नहीं पर उम्मीद और जज्बा दोनों लिए बैठा रहता होगा। फिर नदी बंध जाती होगी मनुष्य के अहंकार से। पेड़ को हल्की राहत मिलती होगी नदी के अत्याचार से। फिर नदी सूख जाती है। पेड़ अपना बचा हुआ थोड़ा समेटने लगता है। और मनुष्य ?? मनुष्य इंतजार करता है उस पेड़ के गिरने का। या ढूंढने लगता है बहाने उस पेड़ को काटने का। -पीयूष चतुर्वेदी

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