सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, September 13, 2020

"औरत का दुख"

अनेक प्रकार के दुखों में हर रोज डुबकी लगाता है मनुष्य जीवन। पर एक औरत का दुख बाकी सबसे अलग होता है। उन्हीं में से एक है किसी स्त्रि के मां ना बन पाने का दुख। और यह दुख उसके रिश्तेदारों और घर वालों की जिंदगी में भी होता है। जहां एक अपनत्व का अधिकार दिखता है। लेकिन उस से कहीं ज्यादा चिंता की आग में झुलसती है वह स्त्रि जिसका हर पल इस उम्मीद में बीतता है कि कास ऐसा ना होता तो कितना अच्छा होता। समाज में चर्चा का केंद्र बन स्त्रि भागती है सभी अपनों से दूर जो उसे उसकी विपन्नता का अहसास दिलाते हैं।
एक नारी के लिए मां बनना कितना आवश्यक होता है यह सोचने और तय करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि उस स्त्रि पर क्या बीतती होगी जिसने ऐसा सपना तमाम लोगों से पहले बुना था। लेकिन किसी कारण टूट गया। वो सारे लोग बेमतलब की बातों से हर रोज उस सपने को हरा करते हैं। वो बातें और सपनों का हरापन हीं होती है जो और कष्ट देता है। पर इन बातों से लड़ती स्त्रि हर रोज तोड़ती है उन सपनों को। इन सपने के टूटने की कोई आवाज नहीं होती। बस एक चुप्पी होती है जो स्त्रि अपने आंसूओं और दूसरे के तानों से और मजबूत करती जाती है। आंसूओं में गर्माहट में वो भीतर से हर पल जलती है और तानों के कांटों पर हर रात गुजारती है। यह मजबूती उसे कठोर नहीं बनाती शून्य कर जाती है। होंठों पर लंबा मौन और आंखों में धूंधली आशा लिए आसमान को ताकती है। नारी को जिस देश में मां का दर्जा प्रदान किया गया है। जहां मां के महीमा का गुणगान होता है। वह मौन का रूप धारण कर लेता है। यह मौन उसे ऐसी-वैसी औरतों की श्रेणी में धकेलती है। नवाजा जाता है उसे नए रूढ़ीवादी अलंकारों से। यहीं समाप्त होती है उसकी ईश्वर के प्रति आस्था और अपनों के प्रति श्रद्धा।
पुत्र की प्राप्ति होना न होना एक विषय है और उसे होने को एक बड़ी सफलता और उत्सव का कारण मान लेना दूसरी। जिन्हें पुत्र प्राप्ति नहीं होती उसके तो हर कार्य पर घर,समाज और  अपनों की सवालिया नजर होती है। 
प्राप्त न होने के सच को समाज अपनाना हीं नहीं चाहता। कोई स्त्री अपनाने का प्रयास भी करे तो पिंजरे में बंद की हुई वर्षों की आशा को कोई मुक्त कर जाता है।  
क्यों होता है ऐसा? 
मैंने एक बार पढ़ा था कि मंदिर में कृष्ण के साथ देवकी की तस्वीर क्यों नहीं होती? 
देवकी भगवान् कृष्ण की मां थी पर उन्होंने कभी उन्हें पुत्र नहीं माना और यशोदा कृष्ण के बारे में सब जानते हुए भी उन्हें अपना लल्ला हीं मानती रही।
पुत्र ना मान पाने के पिछे देवकी का डर था जो हमेशा उन्हें भगवान मानता रहा। 
और यशोदा के भीतर समुद्र सी अथाह ममता।
मां बनने के लिए जन्म देने से भी आवश्यक है ममता।
जिस किसी के हृदय में ममता है वह मां है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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