सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Tuesday, September 15, 2020

उम्मीद की थकान

इतनी थकान तब भी नहीं हुई जब अपने बेटे की उज्जवल भविष्य के लिए अपनी आंखों की रोशनी कम करता कच्ची सड़कों पर साइकिल दौड़ाया करता था। दिन भर की मेहनत में बच्चे का आराम अपने कपोल पर छुपा लिया था मैंने। आंखें हर रोज एक सपना देखा करती थी जिसमें उसका भविष्य रौशन दिखता था। इतनी थकान मुझे कभी नहीं थी जितनी आज इन पक्की सड़कों को टकटकी लगाए निहारते आंखें थक जाती हैं।
उसी बेटे के इंतजार में जिसके लिए शायद मैं जिम्मेदारी की जंजीरों में बंधा स्वयं को धोखा दिया। कास मैं इतना ताकतवर होता कि रोक पाता पक्की सड़कों का निर्माण।
क्या पता शायद भूल गया हो लड़का मेरी ओर आते रास्ते को।‌ 
अब तो सब पक्का हो चला है ना। बस रिश्तों की दीवारें ढहती जा रही हैं।
और मैं एक कमजोर दीवार सा टूटता जा रहा हूं।
-पीयूष चतुर्वेदी

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