सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, September 11, 2020

"मैं भी..... मैं भी"

कितनी अलौकिक तस्वीर है विश्व के सुप्रसिद्ध लोकतांत्रिक देश की। लोकतंत्र का पर्व चुनाव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। देश की जनता अपने अधिकार का पालन कर अपना नेता चुनती है। फिर देखते-देखते उन्हीं में से कोई पोस्ट मैन बन जाता है तो कोई चौकीदार। मगर अफसोस न आम जनता तक उसकी चिट्ठीयां पहुंच रही ना हीं वह सुरक्षित है। जनता के अधिकारों का हनन लगातार हो रहा है। उसके निजता पर प्रहार अब भी जारी है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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