सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, August 29, 2021

मां मौन को पढ़ती है -पीयूष चतुर्वेदी

शिशु के हंसने, रोने, खिलखिलाने, सोचने, ईसारों में कुछ कहने का प्रयास करने तक सारी भूमिकाओं से हम अज्ञात रहते हैं। मुस्कान और आंसू दोनों हीं मौन होते हैं। और यही मौन हमारी शांति में दखल देती है। परंतु इस अशांति में एक प्रकार की सुरीली संगीत का आनंद है। रोना तेज बारिश की धुन लेकर आता है और मृदु भाव से सजी हंसी नदी के बहने का संगीत। आप सुनते जाइए और सुनिश्चित करने का प्रयास करते जाइए कि बालक कौन सी भूमिका में है। परंतु यह सत्य स्वयं में अनंत है कि शिशु के आश्चर्य के समक्ष बड़े-बड़े सुशिक्षित और किर्ति प्राप्त ज्ञानी भी नतमस्तक हैं। और सिर्फ ज्ञानी हीं नहीं साधारण नीरीह प्राणी भी इस सत्य के अस्तित्व से अंजान हैं।
बालक कब किस भूमिका में है इसका अंदाज लगा पाना लगभग असंभव है। सिवाय मां के। क्योंकि मां मौन को पढ़ती है,सुनती है और उसे स्विकार्य करती है। मां का कुछ बोल जाना भी शिशु के लिए अपरिभाषित है। मौन का अनुवाद मुखर में नहीं ममता में होता है। मां उस ममत्व से अपने शिशु को स्पर्श करती है जिसमें उसके मौन की परिभाषा निहित होती है।
कोई भी स्त्री तब पूर्ण होती है जब वह मां बनती है। और मां का पूर्ण होना उसके ममत्व के पूर्ण होता है। पश्चिम के देशों में नारी मां बनती है। और भारत में नारी मां हो जाती है। मां बनने में और हो जाने में एक विशेष सैद्धांतिक अंतर है। मां बनना एक प्रकार का बोझ है और मां होना एक उपहार है नारी की स्विकार्यता। 
फूआ ने इस पल को स्विकारा है। अनमोल उपहार को अपना भविष्य मान वर्तमान के परिदृश्यों को अनदेखा कर भूत को भूलाया है। खुद के बीते अस्तित्व को खो दिया है कहीं। स्वयं को सिर्फ मां के रूप में प्रमुखता देने का कार्य किया है। तमाम रिश्तों में उलझा मां का प्रेम बच्चे की हर एक छोटे संघर्ष को देख सभी रिश्तों की मुठ्ठी से भाग बच्चों तक पहुंचा है। बिखरे बाल अब शैंपू नहीं ढूंढते वो बच्चों की सफाई में गुम हो गए हैं। भूख भी शिशु के रोदन से समाप्त हो जाती है। बच्चों की भूखी, थकी हुई आवाज सुस्त पड़ी फूआ में जान डाल देती है। सड़कों पर फैले कूड़े को देख नाक बंद करने वाली फूआ बच्चों के मल-मूत्र से नहीं घिन्नाती। और यह हर मां अपने बच्चे के लिए करती है। क्योंकि मां को इन सब लम्हों के लिए तैयारी नहीं करनी पड़ती। सारा कुछ प्रकृति प्रदत्त होता है। पिता उसमें शामिल अवश्य होता है परन्तु संपूर्ण समर्पित नहीं। समर्पित होने में पिता मां कि भूमिका में नजर आता है लेकिन यह लगभग असंभव है। और यह असंभव इसलिए है क्योंकि मां की ममता ने हीं उस पिता को पाला है। 
और यह हर नारी करती है जो मां हो जाती है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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