सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, May 25, 2024

मिट्टी की खुशबू। और...और भी।



गांव की नदी।
नदी की रेत।
चमकिले पत्थर।
सामने का पहाड़।
पिछे का टिला।
खिड़की से देखा हुआ आकाश‌।
दरवाजे से भीतर आता चंद्रमा‌।
झरोखे से ताकता सूर्य।
गर्भ की रूई।

टूटे खप्पर से धूप में तैरता धूल का कण।
ठूंठ हुए सारे पेड़।
बेल की खुशबू।
तुलसी का जंगल।
निम की निम्बोली।
बबूल का लासा।
अमलतास का पेड़।
पलास का फुल।
चिरई की लकड़ी।
अबाबील का शोर।
चिड़िया की धुन।
कौवे का आतिथ्य।
चींटि का लोक।
भर्रू का समर्पण।खंजन चिड़िया के पंख।
छूही मिट्टी। 
मिट्टी की खुशबू।
और...और भी।

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