# साईकिल #बच्चो_की_दुमहिया
#तीसरा_दोस्त
#पेड़_नहीं_बैठता
#विनोद_कुमार_शुक्ल
#एकतारा
#जुगनू
छत्तीसगढ़ की पहली यात्रा के दौरान मैंने पहली बार इस पत्रिका को अपने हाथों में स्पर्श किया।
पहले वाक्य से मैं इससे जुड़ता गया। अतीत की यादों में अपनी उपस्थिति को अपने अनुकूल बनाता बिगाड़ता रहा। वर्तमान में इस दुमहिया की सवारी लंबी यात्राओं के दौरान करता रहा और इसके प्रति अशक्त होता गया। अब घंटी बजाकर शोर मचाना चाहता हूं।
मजे की बात यह है कि ये सारी पुस्तकें तय उम्र के बच्चों के लिए हैं। लेकिन मैंने यह पत्रिका पहली बार 24 वर्ष की उम्र में पढ़ी थी अभी 30 में प्रवेश कर चुका हूं। स्वयं को स्थापित और अपने बचपने को सत्यापित करता हुआ कि मुझमें समाहित वात्सल्य का बीज अभी पूर्ण रूप से प्रस्फुटित नहीं हुआ है। मेरे देह पर फैली तरूणाई मेरे बचपन को अब तक नहीं निगल पाई है। मैं इस कोमलता को खुद की चेतना से सदैव अपने भीतर जीवित रखना चाहता हूं।
यह सारा कुछ बचपन को दोबारा छुने जैसा है। अपने बचपन की स्मृतियों को जीने जैसा। बुरे स्मृति को धोने जैसा। उनसे संवाद करने जैसा है। जो मैं उस उम्र में नहीं कर पाया।
शायद स्वयं के प्रति दूसरों के अंदर फूटे घृणा के स्रोत से।
उस उत्स से जो मेरे देह और चेहरे के बनावट से फूटी थी।
या उस उष्णता से जो मेरे आंसूओं से गर्माहट लिए चेहरे पर लुढ़क आए थे। कुछ चांदी से जम भी गए थे जिन्हें पूरी रात अपने गालों पर चिपकाए अगली सुबह के इंतजार में छोड़ दिया गया था।
मैं उस चांदी पर मर्मस्पर्शी हाथ के छुवन एवं स्नेह से सजा हुआ महसूस करता हूं जिसने उस चांदी को सोने जैसा प्रेम दिया। जिसकी स्निग्धता से मैं आज भी उत्फुल्ल हो उठता हूं।
मैं उस चमकते हुए को इन किताबों में पाता हूं। कभी चूना के चांद को देखने में तो कभी बोलू के बोलने में।
इनके प्रति आकर्षण का एक कारण यह भी हो सकता है कि शायद मैं बदला लेना चाहता हूं। बचपन को निगलने वाले क्रूरतम मनुष्यों से जिन्होंने अपने अंधड़ लड़कपन में किसी सजीव चेतना को कमजोर मान उसके ऊपर मानसिक अत्याचार किया। अपनी धौसिंयापन में सजीव चेतना को मृत्यु के ठीक करीब ले जाकर ढ़़केल दिया।
उन सभी के लिए माफी भी इन्हीं किताबों में है। किसी कविता के रूप में। किसी किरदार के रूप में।
पढ़िए और अपने बचपन को स्थान दिजिए।
#बना_बनाया_देखा_आकाश_बनते_कहां देखा_आकाश
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