सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, July 15, 2022

चित्र में होने की भूख हमेशा अधूरी रहेगी का यथार्थ मुझे अतीत से दूर फेंक देता है

इस तस्वीर के छपने के पिछे कैमरे का लंबे वर्षों का संघर्ष छुपा हुआ है। कैमरा हर बार सामने होते हुए भी मेरी फोटो के प्रति अनिक्षा को देख थम जाता। मैं फोटो खिंचाने को लेकर कभी सहज नहीं रहता। शरीर पर बनावटी भाव को कुछ समय के लिए भी लागू करना बोझील लगता है। लेंस से झूठ की दुर्गंध उठने लगती है। कहीं घूमने जाता हूं तो अपनी तस्वीर बटोरने में कामयाब नहीं रहता। उस जगह को आंखों से देखता हूं और कुछ तस्वीरें उतारकर वापस आ जाता हूं। उस यात्रा में मैं अपनी उपस्थिति कैमरे में दर्ज नहीं करता वहां सिर्फ देखा जाने का स्थान होता है। मेरे सारे देखें हुए में मैं अपनी उपस्थिति ढूंढता हूं। अगली दफा उसी स्थान पर जाता हूं तो वहां खुद को ढूंढता हूं। मेरे अकेले की किसी भी यात्रा में मेरी तस्वीरों का स्थान नहीं है। वहां सिर्फ मेरा स्थान है। किसी के साथ जाता हूं तो साथ वाले कहते हैं अरे! निकालो यार फोन इतना महंगा जेबा में धरने के लिए रखे हो? फिर इन बातों से कुछ तस्वीरें मोबाइल में अपने हिस्से की जगह घेर लेती हैं। और मैं मोबाइल में कैद हो जाता हूं। मोबाइल में उतरते हीं मैं ठगा हुआ अनुभव करता हूं जैसे किसी ने मेरे देखे हुए को नोच कर फेंक दिया हो। मैं उस यात्रा से तस्वीरों द्वारा बाहर फेंक दिया जाता हूं। मेरे लिए तस्वीर अतीत का झरोखा है जहां हम अतीत को छू सकते हैं लेकिन मैं हर क्षण अतीत का बोझ अपने देंह पर महसूस करता हूं। पिताजी की मेरे साथ कोई तस्वीर नहीं है। कुछ दिनों तक मैं घर के सारे एलबम में खुद को पिताजी के साथ ढूंढ़ता था लेकिन निराशा हीं साथ लगी। वह निराशा मेरे लिए बिते हुए कल का बोझ है। इसलिए पूराने तस्वीरों क़ो देखकर अजीब सी टिस उठती है। शायद यहीं कारण है कि मैं तस्वीरों से भागता हूं। अतीत में मैं पिताजी के साथ था लेकिन तस्वीर में नहीं हूं। चित्र में होने की भूख हमेशा अधूरी रहेगी का यथार्थ मुझे अतीत से दूर फेंक देता है।

हर कार्यक्रम समाप्त होने के बाद फूआ हर बार तस्वीरों को देखते हुए कहती यार! छोटू हमें साथ तोर एक भी फोटो नईखे। हमार शादी में भी नाई खिंचवाईले। 
मैं उनसे कहता कि फूआ हम जीवन में ही फोटो में कोई फर्क नहीं पडे़। वो कहती पागल बड़े तु, पड़ला तोरा नईखे पता वापस आदमी खुद के तस्वीरों में हीं पावला। धुंधली पड़ी यादों के तस्वीर समेटकर रखला। ये वहां की उनकी,उस वक्त की तस्वीर थी की कल्पना में सारा यथार्थ आंखों में सजा हुआ मिलला।
लंबे समय के बाद तस्वीर खिचें जाने की घटना ... घटते-घटते घट गई। मैं भोजन कर रहा था फूआ पास आई और बोली चल ज्यादा हीरो मत बन आओ फोटो खिचवाओ और कैमरे वाले को इशारा करते हुए बोला भैया..एक फोटो।
और फिर एक घटना घट गई। तस्वीर खिचें जाने की घटना। 
अब शायद फूआ की तस्वीरों को लेकर मुझसे शिकायत समाप्त हो जाएगी। अब उन्हें तस्वीरों के अतीत में मैं मिलता रहूंगा। मेरी धुंधली पड़ी यादें तस्वीर हरा कर जाएगी। मैं इन तस्वीरों के माध्यम से सभी के अतीत में प्रवेश कर पाऊंगा। लेकिन पिताजी के तस्वीरों में खुद को साथ ना पाने की कसक मुझे हर बार गुजरे हुए कल की सुबह में प्रवेश करने से बाधित करती रहेगी।
-पीयूष चतुर्वेदी

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