जब पिछले वर्ष नवंबर में गांव आया था तो घने पत्तों की बातचीत को चिड़िया सुनती और अपने साथियों को बताने के लिए कमरे की ओर भागती थीं। स्याही वाले कमरे में उसका घोंसला था।
ना जाने पिछले वर्ष पत्तों ने आपस में क्या बात किया?
उस बात को सुन घोंसला उजड़ गया चिड़िया उड़ गई। पत्ते समाप्त हो गए। शायद पत्तों ने आपस में मिट्टी हो जाने का प्रस्ताव रखा होगा। उस प्रस्ताव में जड़ कितना शामिल है इसका ठीक-ठीक अंदाज लगा पाना मुश्किल है। जड़ों का अब भी कहीं-कहीं अस्तित्व दिख जाता है।
चिड़ियों ने क्या सुना? यह भी एक प्रश्न है। मेरे अनुमान से उसने पेड़ का समाप्त होना सुना होगा, फिर घने सुरक्षित टहनियों की खोज में सभी ने अपना स्थान बदल लिया।
चिड़िया ने सामने के पेड़ को अपना घर बना लिया है। पत्ते पेड़ को ठूॅंठ कर मिट्टी हो गए। जड़ों का पूर्णतया मिट्टी होना अभी बाकी है। क्योंकि की जड़ें बहुत गहराई तक फैली हुई हैं इसलिए अभी समय है।
जैसे अभी गांव को शहर होने में समय है।
द्वारिका के वयस्क होने में समय है।
जैसे शहर को जीने लायक होने में समय है और गांव को भटकने लायक बनने में।
गांव में हम जीते हैं और शहर में भटकते हैं। शहर का भटकाव सिमीत और अस्थायी होता है। गांव का जीना वृहद और स्थायी।
द्वारिका शहर भटकने के लिए गया था। वहां से भटकाव का थकान अपने कंधे पर लिए गांव जीने के लिए आया है। वह थकान उसकी लंबाई को निगल गई है। कहता है अब शहर नाई जाईब।
लेकिन वो नादान इस बात से अंजान है कि अब गांव से शहर की बदबू उठने लगी है। अब मिट्टी की महक में शहर का धूल उड़ रहा है।
गांव भी इस पेड़ की तरह ठूॅंठ हो चला है। गांव के शुकून में शहर का शोर रिसता जा रहा है।
द्वारिका शहर के बहुमंजिला इमारतों को छोड़ गांव इस पेड़ के लिए भागा था और अब यह ठूॅंठ हो गया है।
गांव शहर होने की दौड़ लगा रहा है।
जड़ मिट्टी होने की लड़ाई लड़ रहा है।
-पीयूष चतुर्वेदी
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