सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, July 15, 2022

द्वारिका के वयस्क होने में समय है

स्याही वाले कमरे में पहले बेल की खुशबू सरसरी हवा के साथ बिखरती थी। हर मौसम बेल का शरबत उदर को ठंडक पहुंचाता था। गांव के कुछ बुजुर्ग इसका फल बहुत पसंद करते थे। बाबा अपने साथ कुछ बेल लखनऊ लेकर जाते और वहां से तारिफ करते। इस वर्ष की गर्मी को बेल ने अपने स्वाद और ठंडक से शांति प्रदान नहीं किया।
जब पिछले वर्ष नवंबर में गांव आया था तो घने पत्तों की बातचीत को चिड़िया सुनती और अपने साथियों को बताने के लिए कमरे की ओर भागती थीं। स्याही वाले कमरे में उसका घोंसला था। 
ना जाने पिछले वर्ष पत्तों ने आपस में क्या बात किया? 
उस बात को सुन घोंसला उजड़ गया चिड़िया उड़ गई। पत्ते समाप्त हो गए। शायद पत्तों ने आपस में मिट्टी हो जाने का प्रस्ताव रखा होगा। उस प्रस्ताव में जड़ कितना शामिल है इसका ठीक-ठीक अंदाज लगा पाना मुश्किल है। जड़ों का अब भी कहीं-कहीं अस्तित्व दिख जाता है। 
चिड़ियों ने क्या सुना? यह भी एक प्रश्न है। मेरे अनुमान से उसने पेड़ का समाप्त होना सुना होगा, फिर घने सुरक्षित टहनियों की खोज में सभी ने अपना स्थान बदल लिया। 
चिड़िया ने सामने के पेड़ को अपना घर बना लिया है। पत्ते पेड़ को ठूॅंठ कर मिट्टी हो गए। जड़ों का पूर्णतया मिट्टी होना अभी बाकी है। क्योंकि की जड़ें बहुत गहराई तक फैली हुई हैं इसलिए अभी समय है। 
जैसे अभी गांव को शहर होने में समय है। 
द्वारिका के वयस्क होने में समय है। 
जैसे शहर को जीने लायक होने में समय है और गांव को भटकने लायक बनने में। 
गांव में हम जीते हैं और शहर में भटकते हैं। शहर का भटकाव सिमीत और अस्थायी होता है। गांव का जीना वृहद और स्थायी। 
द्वारिका शहर भटकने के लिए गया था। वहां से भटकाव का थकान अपने कंधे पर लिए गांव जीने के लिए आया है। वह थकान उसकी लंबाई को निगल गई है। कहता है अब शहर नाई जाईब।
लेकिन वो नादान इस बात से अंजान है कि अब गांव से शहर की बदबू उठने लगी है। अब मिट्टी की महक में शहर का धूल उड़ रहा है। 
गांव भी इस पेड़ की तरह ठूॅंठ हो चला है। गांव के शुकून में शहर का शोर रिसता जा रहा है। 
द्वारिका शहर के बहुमंजिला इमारतों को छोड़ गांव इस पेड़ के लिए भागा था और अब यह ठूॅंठ हो गया है। 
गांव शहर होने की दौड़ लगा रहा है। 
जड़ मिट्टी होने की लड़ाई लड़ रहा है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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