सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, May 23, 2020

मैं जम सा जाता हूं

मेरा मन हमेशा से क्रियाशील रहा है। वो कहते हैं ना मन की गति बहुत तेज होती है। उसकी गति और चंचलता लिए मेरे शरीर और मन में हमेशा उनका एक दूसरे के प्रति विरोध शामिल रहता। कभी मैं अपने कार्य में व्यस्त होते हुए भी ख्यालों में खो जाता। कांपते होठों से कुछ बुदबूदाने लगता। मन बाहर कहीं घूम आता। वो सब करता जो मैं करना चाहता था। लेकिन कर नहीं पाता था।‌ लेकिन मैं खुश था। यह सब बिल्कुल कल्पनाओं में जीने जैसा था। पर अब मानों मैं जड़ हो चुका हूं। मन की चंचलता समाप्त हो चुकी है। मैं इतना व्यस्त नहीं रहा अब। सच कहूं तो अपना सोचा मैं हकीकत में कर सकता हूं। कल्पनाओं में जीने की आवश्यकता हीं नहीं।आज सोचता हूं कभी गांव में नदी किनारे रेत पर एक नाम लिख आंऊ और उसकी तस्वीर खींच उसे भेंट कर दूं जिसका नाम लिखा है।‌ या घर की पिछे की पहाड़ियों की चोटी पर पहुंचकर तेज आवाज में ऐसा कुछ बोलूं जो हमेशा से मैं बोलना चाहता था। और वापस उसे पहाड़ियों से टकराते हुए अपने कानों पर महसूस करूं। उस प्रतिध्वनि को सुन एक लम्बी गहरी सांस खींचता मुस्कुरा दूं। और सांस छोड़ते हीं मेरी सारी थकान मिट जाए।पर नदी को याद करते हीं अजीब सी लहरें मेरे भीतर जन्म लेती हैं। वो जो कुछ भी मैं रेत पर लिखना चाहता चाहता था वो सब ,वो लहरें मिटा जाती हैं। पहाड़ पर जाने की सोचते हीं मन पत्थर सा हो जाता है। मैं जम सा जाता हूं। इतना कठोर मैं कभी नहीं था। मेरी सांसें भारी होने लगती हैं।क्या इस ठहराव में मेरा मन भी ठहर गया है? या यह मेरी थकान है जो मेरी कल्पना की गतिशीलता को बांध रहा है? या मैं मान लूं की यह मेरी थकान नहीं मेरा डर है जो अब तक किसी और को था। और आज मुझे है।

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