सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Thursday, June 12, 2025

हमें भैया मोबाइल परे ओतना हंसे नाई आवे- द्वारिका के विचार


ह, भैया... गोड़ लागत ही।

का द्वारिका का हाल बा? फोटो देखले

हां भैया

और बताव का हाल चाल हऊ? कहां बड़े?

हम अभी गुजरात हीयई भैया

सोनूआ साथे गईल बड़े?

हं ओकर मामा लनले हई

हम इ कहत रिया न भैया कि केतना लाग जतई? फोटो निकलवावे के?

ज्यादा नाई लगतऊ

तबो में?

का सोचले बड़े सब निकलवईबे?

नाहीं जौना में हंसत हियई

तब सस्ता में हो ततऊ

तबो केतना

एक लंबी चुप्पी लिए मैं यह सारा कुछ समेट रहा हूं।


द्वितीय 

हमें भैया मोबाइल परे ओतना हंसे नाई आवे

मेरे पास द्वारिका की जितनी भी तस्वीरें उनमें एक स्नेहिल मुस्कान तैरती हुई नजर आती है।

कोई बात नाई हम तोर हंसत फोटो तोरा भेज देब।

हं त लिखी नंबरवा।

नया मोबाइल लिया है द्वारिका ने। उसके अतीत से इतना सघन जुड़ा हुआ हूं कि उसके वर्तमान में कूदने से डर लगने लगता है।‌

उससे गुजरे दिनों की चर्चा बहुत संभल कर करता हूं। इस डर के साथ की कहीं अतीत को स्पर्श करता हूं मैं उसके वर्तमान को ना कुरेद बैठूं।

कितना झूठ दौड़ रहा होता है हमारे व्यवहार में फिर कोई आपके सामने आता है और आपको नंगा कर देता है।‌ द्वारिका वहीं सामने वाला व्यक्ति है जिसने कोराना काल में मुझमें आक्सिजन ठूंसा था। 

अब वह मेरे होने में अपने नशे को‌ स्थान दे चुका है। और मैं उसे स्वतंत्र कर चुका हूं उन सारे बंधनों से जो उसके निर्माण में कहीं व्यवस्थित थे।

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