सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, June 16, 2019

श्रवण




यह तस्वीर सन् १९५० की है सामने खड़ी एक महिला अपना श्रवण (आडिसन) दे रही है, आज के समय में फिल्मी दुनिया की ऐसी तस्वीर देखने को नहीं मिलती लेकिन वर्तमान की सच्चाई इस से ज्यादा डरावनी है, लेकिन क्यों है यह भी एक सवाल है? जिसका जवाब फिल्मी हस्तियों को स्वयं देना चाहिए और खास तौर पर पुरस्कार वापसी गैंग को।

हाला की अब बात इस तस्वीर की अभिनेत्री का तो पता नहीं लेकिन जो महापुरुष सामने हैं वो उस समय के मसहूर निर्देशक #अब्दुल_राशिद_कारदार की है अब अगर पुराने अखबार और आज के मिडीया और फिल्मी हस्तियों से इनके बारे में जानने का प्रयास अगर आप करते हैं तो आपको यह एक मसीहा के तौर पर नजर आएंगे जिसने न जाने कितने अच्छे कलाकार हिन्दी सिनेमा को दिए,लेकिन मैंने अपनी समझ से कुछ और ही देखा। हमारे समाज का बुद्धीजीवी वर्ग या तो इसे कला और प्रतिभा की संज्ञा देता है या फिर उनकी मजबूरी का।

और चौंकाने वाली सच्चाई यह है कि इसका विरोध एक बदले की आवाज में वहीं उठाता है जिसे सफलता हाथ नहीं लगती वो भी वर्षो बीत जाने के बाद कुछ #me_too के शक्ल में। मगर ऐसा क्यों? क्या वो कामयाबी सच्चाई बदल देती है? क्या सभी उसका हिस्सा बन जाते हैं? या फिर यह सब होता आया है और होता रहेगा? क्योंकि पहली आवाज कौन उठाता सभी जानते हैं। तो क्या इसे भारतीय सिनेमा और भारतीय समाज का काला सच मान लिया जाए?


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