यह तस्वीर सन् १९५० की है सामने खड़ी एक महिला अपना श्रवण (आडिसन) दे रही है, आज के समय में फिल्मी दुनिया की ऐसी तस्वीर देखने को नहीं मिलती लेकिन वर्तमान की सच्चाई इस से ज्यादा डरावनी है, लेकिन क्यों है यह भी एक सवाल है? जिसका जवाब फिल्मी हस्तियों को स्वयं देना चाहिए और खास तौर पर पुरस्कार वापसी गैंग को।
हाला की अब बात इस तस्वीर की अभिनेत्री का तो पता नहीं लेकिन जो महापुरुष सामने हैं वो उस समय के मसहूर निर्देशक #अब्दुल_राशिद_कारदार की है अब अगर पुराने अखबार और आज के मिडीया और फिल्मी हस्तियों से इनके बारे में जानने का प्रयास अगर आप करते हैं तो आपको यह एक मसीहा के तौर पर नजर आएंगे जिसने न जाने कितने अच्छे कलाकार हिन्दी सिनेमा को दिए,लेकिन मैंने अपनी समझ से कुछ और ही देखा। हमारे समाज का बुद्धीजीवी वर्ग या तो इसे कला और प्रतिभा की संज्ञा देता है या फिर उनकी मजबूरी का।
और चौंकाने वाली सच्चाई यह है कि इसका विरोध एक बदले की आवाज में वहीं उठाता है जिसे सफलता हाथ नहीं लगती वो भी वर्षो बीत जाने के बाद कुछ #me_too के शक्ल में। मगर ऐसा क्यों? क्या वो कामयाबी सच्चाई बदल देती है? क्या सभी उसका हिस्सा बन जाते हैं? या फिर यह सब होता आया है और होता रहेगा? क्योंकि पहली आवाज कौन उठाता सभी जानते हैं। तो क्या इसे भारतीय सिनेमा और भारतीय समाज का काला सच मान लिया जाए?
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