सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, September 9, 2019

भीड़


ये जो शहर की भीड़ है उसमें जीवन की तलाश करता जब मैं सड़क पर निकला तो बड़ी-बड़ी इमारतें और बड़ी गाड़ियों के जत्थे में शहर जी रहा है ऐसा मैंने महसूस किया। सड़कों के किनारे लगे भारी भरकम पोस्टर शहर का हालचाल बता रहे हों। हर तरह चहल-पहल, हर ओर बस ज़िद दिखी खुद के सपनों को पूरा करने की। पर एक नजर जा टिकी एक बड़ी कार के शिशे की खट-खट पर, और भितर से आई आवाज ने उसे दूर कर दिया। मैं उस व्यक्ति के पास गया उससे मैंने बात की और मैंने उससे पूछा ये कौन सी जगह है? उसने जबाव में कहा ये मकानों का जंगल है साहब। बिल्कुल सही कहा उसने पेड़-पौधों के जंगल हमें जीवन देते हैं पर इन मकानों के जंगल ने हमसे हमारी मानवता हीं छीन ली। हमनें अच्छा जीवन तो जीना शुरू किया पर सही मायने में जीना ही भूल गए।

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