प्रेम की हर किसी के लिए अलग-अलग परिभाषा होती है। पर मेरा जीवन प्रेम रूपी परिभाषा से व्यथित हो गया है। मैं वर्तमान में भी स्व्यं के प्रति प्रेम की परिभाषा ढूंढ रहा हूं। समय-समय पर यह भी महसूस होता है कि मेरे दिल में एक प्यार के मंदिर रूपी आश्रम का वास हो गया हो। दिन प्रतिदिन प्रेम का विस्तार होता जा रहा है। पर कल्पनाओं से ऊपर कहीं हर पल सोचता हूं। यह ना तो जिस्मानी है ना ही रूमानी संबंधों वाला। यह बस जज्बाती संबंधों वाला प्रेम है। और मैं इसे यह भी नहीं मानता, मैं तो बस इसे प्रेम मानता हूं। इसे परिभाषित नहीं करना चाहता। पर ऐसे प्रेम का प्रीतम की नजरों में कोई महत्व नहीं। यह आपको उससे नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं देता। क्योंकि उसे परिभाषित प्रेम चाहिए और मुझे सिर्फ प्रेम चाहिए। परिभाषा यदि वस्तुओं तक सिमीत रखी जाए तो बेहतर है। मैं प्रेम को परिभाषित नहीं करना चाहता। जीना चाहता हूं, महसूस करना चाहता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं यदि आज प्रेम को परिभाषित किया तो जीवन के हर मोड़ पर उसकी एक नयी परिभाषा लिखनी पड़ेगी। मैं हमेशा अपरिभाषित प्रेम का स्वागत करूंगा और बेमतलब प्रेम करूंगा।
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Wednesday, October 30, 2019
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Popular Posts
सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।
का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा। हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल? का पता हो,...
No comments:
Post a Comment