यह जो तुम वहसीपन से मुझको देखते हो, क्या जरा भी तुमको शर्म नहीं? जो अपनी आंखों से मुझको नंगा करते हो, क्या तुम में मर्म नहीं।
घूरते हो आंखों से, ज़ुबान से गाली भी, चोट भी पहुंचाते हो। क्या बिल्कुल तुम में धर्म नहीं?
सुना है पूजी जाती थी, आज भी हूं, कुछ पूजते हो कुछ मारते हो। क्या तुम्हे और कोई कर्म नहीं?
ऐसी पूजा क्यों करते हो? मैं कब तक इसको सहन करूं? युगों-युगों से परिक्षाएं मैंने दीं, पर आज भी तुम तो पापी हो, अब कितने पाप मैं सहन करूं?
माता हूं मैं, बहन किसी की, पत्नी का भी धर्म निभाई, ममता से भरी एक नारी को हर बार तुमने चोट पहुंचाई। समय बीतता गया, नारे बदलते गए, पूजा बढ़ती गई, पंडाल सजते गए।
मैं डरती गई, मैं मरती गई। यह सब तो एक नाटक सा लगने लगा।
तुम मेरे अंगों को निहार, मुझसे प्रेम करना भूल अपने हवस को मीटाते रहे। खुद के घर से शुरू कर देखो।
तुम्हे ममता की पहचान नहीं? मैं कहते आई, सहते आई आज भी बस रोती हूं।
और आज भी यह कहती हूं बिल्कुल तुम में शर्म नहीं, तुम्हारा कोई धर्म नहीं, तुममें जरा भी मर्म नहीं।
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