सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Monday, March 8, 2021

स्त्री

समाज का एक नियम है यहां हर किसी के महिमा मंडन के लिए एक विशेष स्थान होता है। हर कोई अपनी विशेषता गढ़ता है फिर उसे सुनाता और दिखाता है। कभी-कभी इस दिखावे में खुद को बड़ा,दूसरो को छोटा दिखाने तक की होड़ लग जाती है लेकिन आज मैं किसी को बड़ा या छोटा नहीं उसे उस नज़र से दिखाने आई हूं जिस नजर से हमें उसे देखना चाहिए और दिखाना चाहिए। आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के शुभ अवसर पर मैं महिलाओं के संबंध में कुछ रोचक बातें कहूंगा जो सच के आसपास है। 
आज भी हर अखबार सफल महिलाओं की कहानी लिखेगा सुबह तक सभी उसे शब्दों से इतर अपनी बातों में शामिल कर लेंगे। शाम तक टीवी पर लंबी बहस चलेगी। हमारे देश में भी।हर देश में महिला सशक्तिकरण की बात हो रही है आए दिनों मिडिया में टीवी पर चर्चा होती है महिलाओं को सशक्त बनाना है। हमें महिलाओं को पुरुषों के बराबर लाना है। पहली बात हम उस विषय पर समय बर्बाद कर रहे हैं जिसपर कोई बात होनी हीं नहीं चाहिए। उस पर हमनें अपना पर्याप्त समय और ढेरों पैसा बर्बाद किया है। क्योंकि महिला सशक्त थी है और हमेशा रहेगी। महिला की वर्तमान हालत बस उस सूखी और गंदी नदी जैसी है जो लोगों की बुराइयां धोते-धोते अब मैली हो चुकी है और अब हम ताबड़तोड़ प्रयास कर रहे हैं उसे स्वच्छ करने की। ठिक वैसे हीं जैसे झूठे पुरूषत्व और खोखले मर्यादा, कमजोर मानसिकता और घृणित सोच ने महिलाओं को कमजोर कर दिया। दूसरों की तुच्छ इच्छाशक्ति ने उसे विफलता के उस रास्ते पर ला पटका जहां से सफलता का द्वार दूर नज़र आता है। यह बिल्कुल मैली नदी जैसा है। वहां हमारे देंह की गंदगी नदियों ने साफ कि यहां हमारे विचार की गंदगी में महिलाओं ने अपना हंसता खेलता वर्तमान खोया। वो वर्तमान जिसे आज हम सशक्त करना चाहते हैं। हमें सशक्त करने की नहीं स्वच्छ विचार करने की कोशिश करनी चाहिए। जिस अलंकारों से सुसज्जित कर हम उसे सबसे पिछे की पंक्ति में ढकेलते आए हैं उस पंक्ति को मिटाने कि आवश्यकता है। तब हम समझ पाएंगे कि जिन महिलाओं की आज हम पूजा करते हैं जिनके सम्मुख हम मत्था टेकते हैं। अपने पुरूषत्व को श्रद्धा में बहाते हैं अगर उस दौर में उनपर यह कहकर अंकुश लगाया जाता कि वह स्त्री हैं, उनके लिए एक सिमित दहलीज है जिनमें उन्हें अपने सपनों की हत्या करनी है तो आज वह इस समाज में पूजनीय नहीं होती। लेकिन यहां यह भी समझना होगा कि एक सभ्य समाज में महिला का हक उसे बराबरी से मिलेगा जहां लिंग भेद के सिवा किसी प्रकार का भेद मान्य नहीं लेकिन बराबरी सिर्फ और सिर्फ अच्छाई की होनी चाहिए। बुराई कि बराबरी हमें विनाश की ओर ले जाएगी इस बात को समझते हुए हमें साथ आना होगा, साथ चलना होगा। कोई महिला कमजोर नहीं होती, कोई व्यक्ति कमजोर नहीं होता इस को भीतर से अपनाना होगा। बुरी सोच रूपी धूल को खुद को झकझोर हवा में उड़ाना होगा। सिर्फ बात करने से यह आसान जरूर नजर आता है लेकिन वो सारी बातें सरकारी वादों कि तरह भटकती रहती हैं कभी कोई वास्तविक रूप नहीं ले पातीं। हमें उस रूप को रेखांकित कर सच बनाना होना महिला को हर रूप में अपनाना होगा। जैसे हमनें पुरूषों को अपनाया है। घर-बाहर हर जगह। उसके मौलिक अधिकारों का सम्मान करना होगा जैसे पश्चिम देशों में होता है। कामुकता से ऊपर उठकर जिवन निर्वाण को अपनाना होगा। महिला की तुलना पृथ्वी से कि जाती है क्योंकि वहीं एक छोटे बीज को बड़ा वट वृक्ष का रूप दे सकती है। हमें उस वृक्ष के यथार्थ को करीब से जानना होगा। जिस रोज हम यह जान जाएंगे उस रोज महिला खुद ब खुद सशक्त हो जाएगी।
-पीयूष चतुर्वेदी
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Wednesday, December 4, 2019

नारी


  यह जो तुम वहसीपन से मुझको देखते हो, क्या जरा भी तुमको शर्म नहीं? जो अपनी आंखों से मुझको नंगा करते हो, क्या तुम में मर्म नहीं। 
घूरते हो आंखों से, ज़ुबान से गाली भी, चोट भी पहुंचाते हो‌। क्या बिल्कुल तुम में धर्म नहीं? 
सुना है पूजी जाती थी, आज भी हूं, कुछ पूजते हो कुछ मारते हो। क्या तुम्हे और कोई कर्म नहीं? 
ऐसी पूजा क्यों करते हो? मैं कब तक इसको सहन करूं? युगों-युगों से परिक्षाएं मैंने दीं, पर आज भी तुम तो पापी हो, अब कितने पाप मैं सहन करूं? 
माता हूं मैं, बहन किसी की, पत्नी का भी धर्म निभाई, ममता से भरी एक नारी को हर बार तुमने चोट पहुंचाई। समय बीतता गया, नारे बदलते गए, पूजा बढ़ती गई, पंडाल सजते गए। 
 मैं डरती गई, मैं मरती गई। यह सब तो एक नाटक सा लगने लगा। 
 तुम मेरे अंगों को निहार, मुझसे प्रेम करना भूल अपने हवस को मीटाते रहे। खुद के घर से शुरू कर देखो। 
तुम्हे ममता की पहचान नहीं? मैं कहते आई, सहते आई आज भी बस रोती हूं। 
और आज भी यह कहती हूं बिल्कुल तुम में शर्म नहीं, तुम्हारा कोई धर्म नहीं, तुममें जरा भी मर्म नहीं।

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