एक विश्वास था। जो कभी है का रूप हुआ करता था। नहीं पता तुम्हें मुझपर था या नहीं, पर मुझे था। लेकिन ऐसा भी नहीं कि सिर्फ तुम पर हीं था। पर तुम्हारी सोच की सरहदें इतनी छोटी बन पड़ी मानों तुम बहुत बड़े हो चले। तुम्हारी आकांक्षाओं ने मेरी दूसरे के प्रति लगाव को कटघरे में ला खड़ा किया। तुम मेरे चरित्र तक पहुंच चले। वास्तव में मेरी सारी आदतें जो तुम्हें अच्छी लगती थीं वो सारी अब तुम्हें मर्यादाहीन लगने लगीं। मैं चर्चा का विषय बन गया, विषय क्या कहूं मानों केन्द्र बन गया। तुम्हारे चेहरे की खुशी मैंने हर वक्त बरकरार रखने की कोशिश की थी। पर तुमने तो मेरे नजरिए का पैमाना हीं बदल दिया। अब मैं सोचता नहीं ना हीं कभी चर्चा करता हूं। पर विचार जरूर करना तुम, और तुम से जुड़े लोग,उन से जुड़ी बातें क्या बस मुझ तक हीं सिमीत है? और यदि नहीं तो एक बार याद जरूर करना, तुम्हारा अफसोस मेरी माफी होगी।
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Wednesday, December 4, 2019
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