बाहर गजब की हलचल है। पहले मैं भी इस हलचल का हिस्सा हुआ करता था। पर उसमें इनकी भागीदारी इस स्तर पर नहीं होती थी। आज लगता है मानो मैंने कितना कुछ छीन रखा था इनका, आज ये अपनी जिंदगी आजादी से खुल कर जी रहे हैं। और मैं कमरे में कैद इन्हें खुलकर जीता देख रहा हूं। और मानों ये मुझपर हंस रहे हों। जैसे मैं इनके लिए कोई मनोरंजन हूं। जैसे पहले यह पिंजड़े में बंद हो मेरे लिए हुआ करते थे। मेरे जीने और इनके जीने में मेरा सर्वाथ हमेशा से ज्यादा था। उस सर्वाथ ने आज मुझे गुलाम बना दिया है। इस गुलामी में जीना मेरे लिए खुद की गलती को स्विकार करने जैसा है। -पीयूष चतुर्वेदी Https://itspc1.blogspot.com
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Monday, April 20, 2020
इस गुलामी में जीना मेरे लिए खुद की गलती को स्विकार करने जैसा है
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