सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, May 6, 2020

एक खुली जगह है खिड़की जैसी

गुल्लक में सिक्कों जैसे बंद हैं हम। बिल्कुल गुलाम। एक खुली जगह है खिड़की जैसी। उसमें बंद हम आपस में आवाज कर खुश रहने का प्रयास कर रहे हैं। हमारी बातों में बाहर निकलने का शोर है, नजरें बाहर टिकी हुई हैं। और बाहर भी एक अलग शोर है। आजादी का शोर, जो अब तक हमारे गुलाम थे। उस शोर में उनकी खुशी है। और हमारी गुल्लक वाली जिंदगी में अतीत की खुशियां। हम उन्हीं खुशियों के साये में अब तक जिंदा है। इन खुशियों के समाप्त होने से पहले कोई इस गुल्लक को आ पटके और हमें आजाद कर दे। लेकिन क्या इतना आसान है, इस गुल्लक को तोड़ना? शायद नहीं, लेकिन हमें आज़ादी जरूर मिलेगी पर शर्तों के साथ। जहां हमें दूसरी की खुशियों को भी हमें स्थान देना होगा।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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