गुल्लक में सिक्कों जैसे बंद हैं हम। बिल्कुल गुलाम। एक खुली जगह है खिड़की जैसी। उसमें बंद हम आपस में आवाज कर खुश रहने का प्रयास कर रहे हैं। हमारी बातों में बाहर निकलने का शोर है, नजरें बाहर टिकी हुई हैं। और बाहर भी एक अलग शोर है। आजादी का शोर, जो अब तक हमारे गुलाम थे। उस शोर में उनकी खुशी है। और हमारी गुल्लक वाली जिंदगी में अतीत की खुशियां। हम उन्हीं खुशियों के साये में अब तक जिंदा है। इन खुशियों के समाप्त होने से पहले कोई इस गुल्लक को आ पटके और हमें आजाद कर दे। लेकिन क्या इतना आसान है, इस गुल्लक को तोड़ना? शायद नहीं, लेकिन हमें आज़ादी जरूर मिलेगी पर शर्तों के साथ। जहां हमें दूसरी की खुशियों को भी हमें स्थान देना होगा।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Wednesday, May 6, 2020
एक खुली जगह है खिड़की जैसी
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