आत्मसम्मान रूपी पिंजरे में स्वयं को कैद कर हमने ना जाने कितने रिश्तों को अपने मन से कहीं दूर, बहुत दूर बाहर फेंक दिया है। उस दूरी को तय कर रिश्ता इतना थक चुका है कि उसमें हिम्मत नहीं है वापस आने कि ना हीं आगे बड़ पाने की। रिश्ते पाषाणवत हो चुके हैं।सब कुछ ऐसा लगता है मानों खिलखिलाती फ़सल पर अचानक से वज्रपात हो गया हो। एक भयंकर निराशापन है जहां दूरी के साथ द्वेष भी है।जरूरत है पिंजरे से बाहर निकल मुक्त आसमां में प्रेम की डाली पर साथ झूला झूलने की। बाहें फैला कर निश्छल प्रेम करने की। बंजर पड़ चुकी भूमि पर प्रेम रुपी बारिश के बूंदों की। पत्थर की तरह जम चुके रिश्तों पर फूलों के बारिश की।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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