सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, May 10, 2020

आत्मसम्मान

आत्मसम्मान रूपी पिंजरे में स्वयं को कैद कर हमने ना जाने कितने रिश्तों को अपने मन से कहीं दूर, बहुत दूर बाहर फेंक दिया है। उस दूरी को तय कर रिश्ता इतना थक चुका है कि उसमें हिम्मत नहीं है वापस आने कि ना हीं आगे बड़ पाने की। रिश्ते पाषाणवत हो चुके हैं।सब कुछ ऐसा लगता है मानों खिलखिलाती फ़सल पर अचानक से वज्रपात हो गया हो। एक भयंकर निराशापन है जहां दूरी के साथ द्वेष भी है।जरूरत है पिंजरे से बाहर निकल मुक्त आसमां में प्रेम की डाली पर साथ झूला झूलने की। बाहें फैला कर निश्छल प्रेम करने की। बंजर पड़ चुकी भूमि पर प्रेम रुपी बारिश के बूंदों की। पत्थर की तरह जम चुके रिश्तों पर फूलों के बारिश की।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

No comments:

Popular Posts

सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा।  हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल?  का पता हो,...