सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, March 15, 2021

"नारी का स्थान"

#कुछ_दिन_पहले


भारत देश में एक बड़े भारी संख्या बल ने महिलाओं को हमारे समाज में केवल उपयोग,उपभोग और हर प्रकार से उन्हें अपने काम आने वाला वस्तु समझा है। पुरूष ने अपने अधिकारों की सूची रट्टू तोते जैसी रटी रटाई जो वह पिछली पिढियों से सुनता आया था उसे सुनकर औरत के माथे पर चिपका दी। जो लंबे बालों में छिप तो गए लेकिन उन्हें हर रोज ढोती महिला अपने अधिकार क्षेत्र से वंचित रही। पुरूषों के अधिकार ने निरंतर महिलाओं को सीमा में बांधे रखा है। नारी का स्थान आज भी मुख्य बिंदु से दूर और परिधी के भीतर है। और यदि किसी महिला ने इसका विरोध किया, किसी ने मुख्य भूमिका में आने का प्रयास किया तो उसे बत्तमीज,बेहया,बेसरम जैसे न जाने कितनी संज्ञाओं से नवाजा गया। और आज हालात यह है कि हमारे समाज की छोटी,कुचली, घृणित और पारितंत्रिक सोच ने सबरीमाला मंदिर में 11 से 50 वर्ष की महिलाओं को जाने से प्रतिबंधित कर दिया है जो कि मंदिर ही महिला का है। और हर महिला उस सच से जुड़ी है। जो सच जीवन के उत्पत्ति से जुड़ा है। क्या इसी मानसिकता को जन्म देने के लिए हमारा जन्म हुआ था? क्या कोई पूज्य देवी ने इस सांसारिक सच को झूठा साबित कर स्वयं को हमारे मध्य स्थापित किया था। इस मनमाने और सुनियोजित विरोध का कारण सभी जानते हैं। और यह कारण समाज की घटिया सोच से उतपन्न हुई है। जिस समाज में हम रहते हैं। जो विषय सभी महिलाओं के जीवन से जुड़ी हो और प्रकृति देय हो उसे हमारे समाज की स्वजनित सोच गलत कैसे कह सकती है? कैसे हम झूठला सकते हैं जिवन के सत्य को? बेटी पढाओ बेटी बचाओ जैसे नारे सुनने मे अच्छे लगते हैं। लेकिन जब उसे उसकी वास्तविकता से दूर रखकर एक काल्पनिक सोच को समाज में असमानता फैलाने के लिए बढावा देना कतई सही नहीं। आज जब मैं ट्रेन में सफर के दौरान एक समाज सेविका से मिला जो इस आंदोलन का हिस्सा हैं तो यह लिखने से खुद को रोक नहीं पाया। आज भी कुछ विशेष अवस्थाओं में महिलाओं को मंदिर और पूजा के आयोजनों से दूर रखा जाता है। जरूरी नहीं कि जो कुरीतियां पहले से चलती आ रही है उसे हमारा समाज संस्कृति का हवाला देकर ढोता रहे। और हम उसी अधूरे ज्ञान के दीपक में तेल डालकर उसे जलाते रहें। ऐसे दीपक का बूझ जाना हीं जरूरी है। ऐसे अज्ञान रोशनी से बेहतर ज्ञान का अंधकार है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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