एक ओर सरकार कोरोना जैसी महामारी पर जागरूकता अभियान के तहत करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। इसकी गंभीरता को समझाने के लिए विज्ञापन निकाले जा रहे हैं। विज्ञापन से बढ़कर तालाबंदी जैसे फैसले भी लिए गए। उस अनुमानित फैसले ने आम जनता के निश्चित जीवन को कितना प्रभावित किया यह किसी से छिपा नहीं है। पैदल घर की ओर भागते लोगों ने हिम्मत नहीं हारी लेकिन जिंदगी से हार गए। उसकी जिम्मेदारी कभी किसी राजनीतिक दल ने नहीं ली उसके उलट अपनी कामयाबी गिनाते रहे। कभी मुख्य पृष्ठ से गायब कोरानो कि खबरें अब वापस मोटे-मोटे अक्षरों में आंखों के सामने अंधकार को जन्म दे रही हैं। वापस तालाबंदी की तैयारी हो रही है। सरकार इस महामारी के प्रति बेहद गंभीर है। इसी गंभीरता को जनता के मध्य स्थापित करने के लिए और जन-जन तक जागरूकता फैलाने के लिए देश में चुनाव का बिगुल फूंका गया है। लाखों की भीड़ में जनता को संबोधित किया जा रहा है। शायद यह कोरोना का दूसरे चरण का चुनाव है। पहले चरण में सभी को घर में बंद कर दिया गया था जिस कारण सभी अपने एक साथ स्वनिर्मित अंधेरे में प्रकाश फैला सकें। थियेटर में लगने वाले फिल्मों से इतर अपना मनोरंजन कर सकें। अब दूसरा चरण जारी है। जहां लोग बाहर भीड़ में शामिल हो अपने जीवन का दीप बुझा सकें। सामने वाले की मृत्यु पर अफसोस जता सकें, अपनी आंखें भींगा सके। इस तरह कोरोना की जीत निश्चित है। शायद यह तय करना अब भी आवश्यक है कि मूल मनसा क्या है? क्यों जागरूकता के नाम पर पैसों की बर्बादी हो रही है? जब ऐसा ही करना है तो पैसे लगा के ईमानदारी से चुनाव हीं कर ले राजनीतिक दल।
लेकिन हमारे देश के वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि हम
*शक्तिशाली देशों के साथ आज खड़े हैं। हमनें वैक्सीन बना ली है। लेकिन इसका भी राजनितिकरण आने वाले समय में संभव है।
-पीयूष चतुर्वेदी
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