कुछ वर्ष पहले मेरे साथ यह घटना घटी थी। शायद इसे घटना कहना उचित नहीं होगा। ठीक-ठीक शब्दों में यह मुक्ति बंधन था। जहां एक ओर मुक्ति थी वहीं दूसरी ओर बंधन। बंधन के घेरे में मैं था। मेरे प्रति उनका अनुराग उन्हें मुक्त कर रहा था। मेरे भीतर अपनी समझ से उन्हें समझने का छल मुझे बांधे रखा था। उनके भीतर मुकक्ता थी, श्रद्धा थी। मैंने स्वयं को संयम से सजा रखा था। उनकी आंखों में मोतियों से अनमोल आंसू थे। मेरी आंखों में जिद से इतराती समझदारी की किरकिरी। आज इंटरनेट पर इस तस्वीर को देख सब आंखों में तैरने लगा अब उम्मीद है सारी समझदारी संयम को पछाड़ बह निकलेगी और श्रद्धा घर कर जाएगी।
-पीयूष चतुर्वेदी
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