सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, April 11, 2021

मनोहर

कुछ वर्ष पहले मेरे साथ यह घटना घटी थी। शायद इसे घटना कहना उचित नहीं होगा। ठीक-ठीक शब्दों में यह मुक्ति बंधन था। जहां एक ओर मुक्ति थी वहीं दूसरी ओर बंधन। बंधन के घेरे में मैं था। मेरे प्रति उनका अनुराग उन्हें मुक्त कर रहा था। मेरे भीतर अपनी समझ से उन्हें समझने का छल मुझे बांधे रखा था। उनके भीतर मुकक्ता थी, श्रद्धा थी। मैंने स्वयं को संयम से सजा रखा था। उनकी आंखों में मोतियों से अनमोल आंसू थे। मेरी आंखों में जिद से इतराती समझदारी की किरकिरी। आज इंटरनेट पर इस तस्वीर को देख सब आंखों में तैरने लगा अब उम्मीद है सारी समझदारी संयम को पछाड़ बह निकलेगी और श्रद्धा घर कर जाएगी।
-पीयूष चतुर्वेदी

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