चुनावी दस्तक जब जनता के घर की ओर कूच करती है।
जब प्रत्यासी द्वार खटखटाता है। पांव पकड़े आम जनता से वोट मांगने का हर सफल प्रयास करता है तो वह भूल जाता है कि उसे करना क्या है? वह मात्र पैर पकड़े देश के लोकतंत्र लोकतंत्र , मानवता की सेवा और नैतिक समर्पण को संपूर्ण रूप से हराकर अपनी जीत की भीख मांगता है।
यदि जनता की सेवा करनी है तो जीत क्या और हार क्या? सच तो यह है कि सबने कुछ व्यक्तिगत सपने सजा रखे हैं जहां आम जनता की नजरों में खास बनने की गंध आती है। लार टपकती जिह्वा पर बहुत बड़ा झूठ नजर आता है। लालच अपने अंधकार को और गहरा करता हुआ समाज में प्रवेश करता है। जहां नीति का स्थान नहीं अपितु राज करने की सोच चुनावी शोर में भी अलग सुनाई देती है। कोई कहे कि वह जनता की सेवा के लिए राजनीति में आया है इससे बड़ा झूठ सिर्फ यहीं है कि मैं चौकीदार हूं।
लोग कहते हैं चुनाव के वक्त नेता या उम्मीदवार बड़े परेशान रहते हैं। यहीं समय होता है जब जनता उन्हें आईना दिखाती है। मेरा मानना है कि नेता की समस्या झूठी है। उसकी खुद की बनाई हुई है। जहां उसने याचना, विश्वास, श्रद्धा, आत्मसम्मान सबसे समझौता कर देश के मुंह में कालिख पोतने की तैयारी कर रखी है। जो कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में भी उनके लालच को कम नहीं कर पायी। ऐसे लोग सत्ताजिवी है। इनके लिए हर प्रकार की समस्या एक अवसर को जन्म देती है। असली समस्या तो ईमानदार जनता के साथ है। जिसे ना दारू चाहिए, ना साड़ी ना हीं खाते में खैरात के रूपए। उसकी समस्या सबसे प्रबल है कि काम पर वोट देना है।
उसे तो वादों का सच चाहिए। पूरा ना सही सच के करीब हीं सही।
मेरे विचार में नेता की सेवा में और देश के विकास में बस उतना हीं अंतर है जितना बिस्कुट और बिस्किट में।
-पीयूष चतुर्वेदी
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