सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Tuesday, March 30, 2021

चोटिल प्रेम

हमनें प्रेम को सिर्फ ढूंढने का कार्य किया है। उस प्रेम को जो हमारे भीतर समाहित है। जिसकी धार किसी भी पत्थर को काट रेत बना सकती है। लेकिन उसी नदी किनारे अपनी जड़ें मजबूत करती अहंकार रूपी पेड़ ने उस नदी को सूखा दिया है। उसकी जड़ें अंदर तक मजबूत और गहरी हो चली हैं। अब टहनियों पर बैठी पंक्षिया किनारे पर आते पशुओं को देख मौन हो जाती हैं। उनके कमर पर बैठ अब कीड़े को नहीं खातीं। अब जल की पवित्रता धूमिल हो चली है। स्नान करने से लोग घृणा करते हैं। पत्थर तक पहुंचती धार बस उसे छूकर निकल जा रही है।
अहंकार जीत जाता है और प्रेम.... प्रेम उन धाराओं के साथ सूखती जा रही है और पत्थर से टकराकर नित्य चोटिल होती है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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