हमनें प्रेम को सिर्फ ढूंढने का कार्य किया है। उस प्रेम को जो हमारे भीतर समाहित है। जिसकी धार किसी भी पत्थर को काट रेत बना सकती है। लेकिन उसी नदी किनारे अपनी जड़ें मजबूत करती अहंकार रूपी पेड़ ने उस नदी को सूखा दिया है। उसकी जड़ें अंदर तक मजबूत और गहरी हो चली हैं। अब टहनियों पर बैठी पंक्षिया किनारे पर आते पशुओं को देख मौन हो जाती हैं। उनके कमर पर बैठ अब कीड़े को नहीं खातीं। अब जल की पवित्रता धूमिल हो चली है। स्नान करने से लोग घृणा करते हैं। पत्थर तक पहुंचती धार बस उसे छूकर निकल जा रही है।
अहंकार जीत जाता है और प्रेम.... प्रेम उन धाराओं के साथ सूखती जा रही है और पत्थर से टकराकर नित्य चोटिल होती है।
-पीयूष चतुर्वेदी
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