सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, April 14, 2021

मानवता और कोरोना

पिछले वर्ष जब इसी महीने के आस-पास या लगभग मार्च के आरंभ में हमें चिंताओं ने घेर रखा था। सभी राज्य सरकारें और केंद्र सरकारें जनता के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी को निभाने का हर सफल फैसला कर रही थी। परंतु हमारे देश की राजनीतिक उपलब्धि, और सिमीत संसाधनों ने जनता को ज्यादा निराश नहीं किया। जीतना बुरा हमनें सोचा था उससे भी बुरे में हमारी स्विकृति थी। प्रारंभ में लोगों ने चेहरे को छुपाया। तपती गर्मी में पूरे बांह की सर्ट को अपनाया कहीं से को छु न जाए इतनी उचित दूरी भी बना कर रखी। अपनों को भी , जिससे हमारा दिल का आत्मिक रिश्ता था उसे भी हमनें कोरोना की नजरों से देखा। फिर सारे सामाजिक पशु ठहर गए। विश्व भर के सभी समझदार और जानकार व्यक्ति जो देश बदलने की बात किया करते थे वह घरों में छुप गए। और अपनी सांसों को इकट्ठा करने लगे। बहुत धीमी सांस ले रहे थे कि कहीं कोरोना सुन न ले कि मेरी सांसे मजबूत हैं। बाहर प्रकृति खुद को पुनः पोषित कर रही थी। कोंपलों की आपस में बातें हो रही थी। सारा कुछ बिल्कुल हरा था मानों जैसे अभी-अभी बारिश हुई हो। जैसे पेड़-पौधे ने बहुत दिनों बाद अपनी भूख मिटाई हो। मानों उनमें क्लोरोफिल की मात्रा अचानक से बढ़ गई हो। मैं जब अपने खिड़की के बाहर पेड़-पौधों को देखता था तो खुद से घृणा होती थी, कितना कुछ छीन लिया है हम मानवों ने इनसे। हमारी मानवता तो दिखावा है, स्वार्थ से सजी हुई है उसमें कपट की झलकियां है जो हमनें इन्हें अपने शौक से पानी देकर और पंछियों के लिए दाना रखकर छुपा रखा है। मैंने इस दौरान मूल्यांकन किया कि पंछियों के लोगों ने इस वर्ष दानें नहीं रखे हैं। सभी खुद का पेट पालने में लगे हैं। घर में पल रहे पालतू पशुओं के लिए भी कुछ विशेष नहीं बचता। लेकिन पंछियां, पत्तों से झांकती कलरव कर रहीं हैं। मानों हमसे कह रही हो कि मुझे तुम मानवों से कुछ नहीं चाहिए, बस अपनी मानवता को जागृत करो और हमारे जीवन को चोट लगाना बंद करो। तुम इंसानों के विकसित सोच ने हीं हमारा सर्वनाश किया है। 
इन सब के मध्य हमारा देश अलग विपत्ति से लिप्त था। अमीर और गरीब की जो पहचान थी वह बदल चुकी थी। अमीर घरों में बंद थे और गरीब सड़कों पर। गरीबों से उनकी झोपड़ी भी छीन ली गई थी। देश में मृतकों की संख्या बढ़ते जा रही थी और अस्पतालों में स्थिती बुराई के चरम पर थी। फिर याद आया वादों का... राजनीतिक दलों की बातों से तो हम विश्वगुरु बनने से मात्र एक कदम की दूरी पर हैं। और हमारे पास वेंटिलेटर नहीं? सुव्यवस्थित अस्पताल नहीं? अच्छे इलाज नहीं, जहां डाक्टर की कमी और गरीब की आमदनी दोनों बराबर है। टीवी पर बहुचर्चित चेहरे नजर आते वो हमें हाथ धोना सिखा रहे थे और नजदीकी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में जाने की सलाह दे रहे थे। उन्होंने अपने जीवन में कैमरा और पैसे के सिवा सब कुछ देखना बंद कर दिया था। शायद यहीं कारण होगा कि ऐसे तमाम लोग जो सामुदायिक केंद्र में जाने की सलाह दे रहे थे कुछ दिनों बाद वो सभी देश के महंगे अस्पतालों में कुछ की सांसे तलाश रहे थे। इन तमाम झूठ और लापरवाह फैसले के मध्य समस्या हाथ धोने की नहीं अपने हाथ से सब कुछ धुल जाने की थी। तमाम परिवारों ने अपना सब कुछ खो दिया लेकिन मास्क और सेनेटाइजर को साथ लेकर चलता रहा। गंगा माता भी अपने जीवन के सबसे विरक्त काल से गुजर रही थी। माना उनकी पौराणिक मान्यता है लेकिन अब वह भी राजनीति का हिस्सा हैं। उनकी निर्मलता इससे तय हो जाती है कि उन्होंने बहुतों को मंत्री और प्रधानमंत्री बनाया बहुतों के दुख हरे, कष्टों से उबारा, पाप धोए, मनोकामनाएं पूर्ण की लेकिन उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया। एकदम वास्तविक फकीर की तरह। इस दौरान संस्कृति,सभ्यता,संसार, धर्म, सबने अपने घुटने टेक दिए। इन्हीं असल मुद्दों पर तो हम लड़ते आए थे। यहीं तो हमारे राष्ट्र के असली राजनितिक मुद्दे थे फिर क्यों हमारे हाथ सिर्फ बेतरतीब रेखाओं से सजे हुए हैं? 
वर्ष के मध्य में कोरोना कुछ कमजोर हुआ या हमनें मान लिया इसका ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। धीरे-धीरे लोगों के मास्क उतरने लगे। मैंने अभी मास्क से दूरी नहीं बनाई थी परंतु मेरे दोस्त मुझसे कहते इसे हटा बे अब कोई कोरोना नहीं। अब कोई कोरोना नहीं वाली बातें कोरोना सुन रहा था। प्रकृति उसपर अपनी नजरें लगाए बैठा था और एक बार वापस पूरी ताकत से आया है। मगर अफसोस इस बात का है कि अब तक राष्ट्र में चुनावी मुद्दे नहीं बदले। अस्पतालों की जर्जरता वैसी हीं है। देश में चुनाव संपन्न हो रहा है, सत्ता की लड़ाई जारी है और इन सब के मध्य हम विश्वगुरु बनने वाले हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी
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