सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, April 24, 2021

कोरोना की गंभीरता

महामारी अपने विकराल रूप धारण किए हुए है। लोगों की चर्चा बहुत गंभीर नजर आती है। अभी कैंटीन में भोजन के दौरान भी लोग इसी विषय पर बातें कर रहे थे। हालांकि बातों में अपने आसपास से अधिक दिल्ली-मुंबई की चर्चा थी। क्योंकि सारी जानकारी अखबार और मोबाइल से एकत्रित की गई है। इन माध्यमों ने सदैव हमें अपने करीब देखने से वंचित रखा है। बगल के कमरे में हो रही अनैतिक घटना से हम भले अंजान रहें लेकिन दिल्ली की खबर पूरी रखते हैं। अखबारें हमारे दरवाजे पर शहर छोड़ जाती हैं और न्यूज़ चैनल उनके दर्शन कराते हैं इस बीच हम वह देखना बंद कर देते हैं जो हमें पहले देखना था। ऐसे हीं में कुछ सज्जन हैं जो इसकी गंभीरता को गहराई से समझ रहे हैं। वो इतने गंभीर पहले कभी नहीं थे लेकिन इस वर्ष की विपत्ति ने उनके अपनों को विपनन्ताओं के दरवाजे ला खड़ा किया है। यह सच भी है पिछले साल देश की मात्र 10 प्रतिशत आबादी से कोरोना की मजबूती भरी जान-पहचान हुई थी बाकी ने तो कहानियां सुनी थी,समाचार को देख स्थिति को समझा था परंतु इस वर्ष लगभग 90 प्रतिशत आबादी से कोरोना की प्राकृतिक पहचान हो गई है। अब लोगों के पास कहानियों से इतर साक्ष्य भी हैं। बातें अब और भी विचारशील हो गई और स्थिति उस से कहीं अधिक गंभीर। इन्हीं बातों के बीच महाराज जी ने एक गाना बजाया...आंख से छलका आंसू और जा टपका शराब में और सब शांत होकर भोजन करने लगे और महाराज जी के आंखों में आसूं था। उन्होंने आज अपने किसी सगे को खोया है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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