मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Friday, March 18, 2022
बार-बार तेजी से बदलते रंगों की दौड़ में भी आंखें अपना अस्तित्व नहीं खोतीं -पीयूष चतुर्वेदी
ना जाने आंखें कितना कुछ देखती हैं। उस देखे में सब एक दूसरे से अलग होते हैं। सबके अपने ढंग होते हैं। सभी अलग-अलग रंगों में लिपे पुते होते हैं। ना जाने कितने रंग और उन रंगों से लिपटते अंग। जहां सब पर रंग हावी हो जाता है। सभी रंग हम एक दूसरे की आंखों में देख पाते हैं। बार-बार तेजी से बदलते रंगों की दौड़ में भी आंखें अपना अस्तित्व नहीं खोतीं। पर मुझे बचपन से हीं रंगों की समझ नहीं है। मैं तब भी सिर्फ काले और सफेद को ही समझ पाता था। बाकी सब बस एक पहेली सा लगता जिसे बूझना उन काले, सफेद रंगों की समझ भी समाप्त करने के समान था। मैं बस उन्हीं रंगों के साथ जीता आया हूं। बाकी रंगों का मिलना मानों स्थायी ना हो आंखें हर बार उन्हें देख कुछ नए रंग का नाम दे बैठती और मुंह से वहीं निकल पड़ता। सामने खड़े लोग हंस कर कहते हम्म इतना भी नहीं पता यह गुलाबी है। और मेरे गाल शर्म से लाल हो जाते, उसका लाल होना मैंने कभी नहीं देखा पर लोग कहते थे। वो लोग जो रंगीन थे। जिन्हें रंगों की समझ थी। मैंने हार नहीं मानी, मैं रंगों के पिछे भागने लगा। एक बार मैं अजनबी रंग को आंखों में समझने लगा। वह आंखों में उलझता हुआ बहुत से रंगों में तब्दील होता गया। जैसे और भी कई रंग साथ मिल रहें हों। एक रंग में दूसरे रंग को मिलाकर नए रंग बनते गए। लेकिन मैं उनमें से काले और सफेद को पहचान अपने भीतर चुरा लिया। मैं सफेद और काले को अलग रखना चाहता था हमेशा से। इसमें कुछ भी नहीं मिलाना चाहता था। शायद मुझे डर था एक नए रंग के बनने पर उसे याद रखने का। मैंने आज तक अपनी आंखों से जो कुछ भी देखा उसे कोई रंग नहीं दिया। उसका कारण एक यह भी था कि मैं भूल जाता उसके रंगों के जाल में कहीं उसके सच को। इसलिए बस दो रंग हैं मेरे जीवन के काले और सफेद। शायद मुझे बस इसी की समझ है इसलिए या मुझे ज्यादा अंतर पसंद नहीं। ठीक-ठीक जबाव मुझे अब भी मालूम नहीं। बस इतना ज्ञात है कि मैं बस देखना चाहता हूं सब कुछ जिसमें कोई पैमाना ना हो। जहां बटवारा ना हो। क्योंकि रंगों के मिलने पर जहां एक नए रंग की उत्पत्ति होती है वहीं यह रंग द्वेश का भी कारण बन जाता है। बड़े भेद हैं इन रंगों के। पर काले और सफेद को मिलाकर भी मैं बस एक हीं रंग प्राप्त करता हूं , काला। शायद यहीं कारण है इन्हें अपनाने का। भविष्य की लड़ाई अगर इन दोनों को लेकर मेरे भितर हुई तो मैं इसे मिलाकर एक रंग काला दे दूंगा।
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