हमारे पड़ोस में रहने वाले लोगों के नाम।
आसपास की दुकानों पर छपे रंग बिरंगे रंगों से सजे नाम।
हमारे खुद के नाम सब भगवान के नाम लगते हैं।
ठीक-ठीक अर्थ निकाला जाए तो लगभग ९०% लोगों के नाम में भगवान के दर्शन होंगे।
हमारे बड़े- बुजुर्गों ने हमारे समाज को भगवान के नाम से सजाया था। सजाया है या डराया है यह भी बहस का विषय है। मुझे समाज भगवान के नाम पर डरा हुआ नजर आता है। उनके पूर्वजों ने उसे उस दौर में सजाया और डराया होगा।
सजाया हुआ डर लंबे समय तक हमारे साथ रहता है।
हम शादियों से नाम में भगवान ढूंढते आए हैं शायद यहीं कारण है कि इंसान में भगवान ढूंढने में हम अब भी असफल रहे हैं। मेरा नाम पीयूष है। पीयूष किसी भगवान का नाम नहीं। अमृत एक पेय पदार्थ है। लेकिन पदार्थ में भगवान होते हैं कि सच्चाई मुझे भगवान से अलग नहीं कर सकती। सभी में समाहित भगवान रूपी मनुष्य को मैंने आपस में लड़ते देखा है।
उस वक्त भगवान लड़ते हैं या मनुष्य इसका ज़बाब मंदिर में स्थापित मूर्तियों के पास जरूर होगा। क्योंकि वहां सभी लड़ने वाले प्रसाद लेकर पहुंचते हैं। सभी के भीतर का भगवान मूर्ति में बसे भगवान से कैसे मिलता होगा? इसका उल्लेख मैंने कभी नहीं पड़ा। कैसे मांगता है? यह मैं नित्य अपने जीवन में देखता हूं। पिछले २ वर्ष से मैंने मंदिर जाना बंद कर दिया था। मुझे मंदिर जाना और मांगना दोनों एक जैसे लगते हैं। पिछली बार बहुत पहले मैंने मंदिर में पिताजी के प्राण की रक्षा की भीख मांगी थी। पंडितों ने देने की बढ़चढ़ कर बात कही। फिर शरीर शांत होने के पश्चात मृत्यु को सत्य और आत्मा को अमर बता सब भगवान पर छोड़ दिया। सारा कुछ भगवान पर छोड़ने में विशेष सुविधा है। सुविधा है विवाद से बचने की।
सुविधा है प्रश्नों को अमरत्व से समाप्त कर देने की।
सभी का नाम भगवान का होने और सभी में भगवान के बसने के बाद भी हमारे समदर्शी न होने का परिणाम मंदिर है।
लेकिन मंदिर मांगने के लिए नहीं बना इस सत्य को छुपाने के लिए हमारे नाम भगवान के नाम पर रखे गए हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी
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