सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Saturday, March 5, 2022

हमारे समदर्शी न होने का परिणाम मंदिर है

हमारे पड़ोस में रहने वाले लोगों के नाम।
आसपास की दुकानों पर छपे रंग बिरंगे रंगों से सजे नाम।
हमारे खुद के नाम सब भगवान के नाम लगते हैं।
ठीक-ठीक अर्थ निकाला जाए तो लगभग ९०% लोगों के नाम में भगवान के दर्शन होंगे। 
हमारे बड़े- बुजुर्गों ने हमारे समाज को भगवान के नाम से सजाया था। सजाया है या डराया है यह भी बहस का विषय है। मुझे समाज भगवान के नाम पर डरा हुआ नजर आता है। उनके पूर्वजों ने उसे उस दौर में सजाया और डराया होगा।
सजाया हुआ डर लंबे समय तक हमारे साथ रहता है। 
हम शादियों से नाम में भगवान ढूंढते आए हैं शायद यहीं कारण है कि इंसान में भगवान ढूंढने में हम अब भी असफल रहे हैं। मेरा नाम पीयूष है। पीयूष किसी भगवान‌ का नाम नहीं। अमृत एक पेय पदार्थ है। लेकिन पदार्थ में भगवान होते हैं कि सच्चाई मुझे भगवान से अलग नहीं कर सकती। सभी में समाहित भगवान रूपी मनुष्य को मैंने आपस में लड़ते देखा है।
 उस वक्त भगवान लड़ते हैं या मनुष्य इसका ज़बाब मंदिर में स्थापित मूर्तियों के पास जरूर होगा। क्योंकि वहां सभी लड़ने वाले प्रसाद लेकर पहुंचते हैं। सभी के भीतर का भगवान मूर्ति में बसे भगवान से कैसे मिलता होगा? इसका उल्लेख मैंने कभी नहीं पड़ा। कैसे मांगता है? यह मैं नित्य अपने जीवन में देखता हूं। पिछले २ वर्ष से मैंने मंदिर जाना बंद कर दिया था। मुझे मंदिर जाना और मांगना दोनों एक जैसे लगते हैं। पिछली बार बहुत पहले मैंने मंदिर में पिताजी के प्राण की रक्षा की भीख मांगी थी। पंडितों ने देने की बढ़चढ़ कर बात कही। फिर शरीर शांत होने के पश्चात मृत्यु को सत्य और आत्मा को अमर बता सब भगवान पर छोड़ दिया। सारा कुछ भगवान पर छोड़ने में विशेष सुविधा है। सुविधा है विवाद से बचने की।
सुविधा है प्रश्नों को अमरत्व से समाप्त कर देने की। 
सभी का नाम भगवान का होने और सभी में भगवान के बसने के बाद भी हमारे समदर्शी न होने का परिणाम मंदिर है।
लेकिन मंदिर मांगने के लिए नहीं बना इस सत्य को छुपाने के लिए हमारे नाम भगवान के नाम पर रखे गए हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Thursday, September 5, 2019

भगवान


समय बदल रहा है लोगों कि सोच बदल रही है, शिक्षा का स्तर हर रोज अपनी नई परिभाषा गढ़ रहा है और लोग उसके कदम से कदम मिलाकर चल रहें हैं लेकिन न लोगों का पता है और ना ही उनके कदमों का कि वो खड़े कहां हैं। सच कहूं तो हमारा देश एक ऐसी सोच पर चलता है जिसकी सिर्फ बातें होती हैं दूसरों को समझाने के लिए उसका उपयोग होता है फिर भी समझने वाले और समझाने वाले एक ही स्थान पर खड़े हैं। चलिए अब सीधा विषय पर आता हूं। पूरे विश्व में हर एक वस्तु, व्यक्ति, स्थान के नाम को संज्ञा कहते हैं। परन्तु हमारे देश में हर एक व्यक्ति, वस्तु और स्थान को भगवान माना जाता है याद रखियेगा मैं यहां नाम की चर्चा नहीं कर रहा। हर इंसान में भगवान है लेकिन खुद का दुश्मन भी इंसान है। मां-बाप भगवान का रूप होते हैं और वास्तविक तौर पर वहीं भगवान है फिर भी हमारे देश में वॄद्धाश्रम की कमी नहीं। पानी, अन्न सभी भगवान फिर भी नदियों की हालत और अन्न का दुरपयोग किसी से छिपा नहीं। और सोचने वाली बात यह है कि जहां भगवान की इतनी मान्यता है वहां कटुता भी है एक दूसरे के प्रति ईश्या भी है और इस से अलग मंदिरों में भारी भीड़ भी है। और वहीं विदेशों में जहां जिस चिज को सिर्फ उसी से जाना गया वह हमारे यहां से बेहतर है। सच कहूं तो हमने सिर्फ भगवान बनाया और बनाते चले गए और बनाने में इतने व्यस्त हो गए और इतने भगवान हो गए कि हम सब ही भूल बैठे की भगवान कहां है फिर हमने मंदिर बनाया और वहां मूर्ती के सामने भगवान को पाया और फिर मूर्ती की पूजा में इतने लगन से लग गए कि इंसान को इंसान समझना भी हमने जरूरी नहीं समझा। और सच कहूं तो यही से अंधविश्वास का जन्म हुआ और हम सब आधुनिकता के दौर में यूं गुम हुए कि परमेश्वर की हमने परिभाषा बदल दी और आने वाले समय में ऐसा ही चलता रहा तो मंदिर में भी भगवान नहीं मिलने वाले अब भी समय है और समय रहते जरूरत है खुद को बदलने की।

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