मां हर वर्ष यह व्रत रखती थी। इस वर्ष स्वास्थ्य संबंधी कारणों से यह संभव नहीं हो सका, शायद आगे भी नहीं होगा। लेकिन मां एक रोज पहले फोन करके यह सूचना अवश्य देती है कि "सुते से पहिले सीना में तेल लगा लिह"। मैं अक्सर इसे भूलता आया हूं।
स्त्रियों का व्रत तपस्या जैसा होता है। चाहे वह पति के लिए हो या संतान के लिए। व्यवहार में साधना होती है। पुत्र के लिए सोने का आभूषण और पुत्री के लिए चांदी का अलंकार गले में अंगिकार किए मांए पूजा संपन्न करती हैं। उसके पश्चात मां उस श्रंगार को अपने बच्चों के गले भेंट कर देती हैं। कुछ समय बाद उसे अगले वर्ष के लिए सहेज कर रख लिया जाता है। मेरा सोने का था क्योंकि की मैं लड़का हूं। जब मैं छोटा था चूहा उसे कुतर गया था। वो आज भी वैसा हीं है। लड़कियों का चांदी का क्यों होता है इसका सटिक ज़बाब मुझे आज तक प्राप्त नहीं हुआ। समानता की दुहाई देने वाला समाज, बराबरी की यात्रा पर बढ़ता देश आज भी धातु से मनुष्य की तुलना करने में अव्वल है। जैसे लड़कियां घर में पूजित देवता बाबा का प्रसाद नहीं खा सकतीं इस सवाल का ज़बाब मात्र इतना है कि "नाई खाइल जाला" मैं यहीं उत्तर बचपन से सुनता आया हूं। मैं अपनी बहन प्रिया,नेहा से इसका विरोध करने की जिद करता और हाथ खुद में प्रसाद लिए खा रहा होता। हमें आस्था से सवाल करने और ज़बाब पाने का हक है। श्रद्धा से मेरा कोई प्रश्न नहीं।
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