सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, September 12, 2022

मैंने मां को अक्सर जलते चूल्हे के सामने उठ रही आंच में झुलसते हुए देखा था- पीयूष चतुर्वेदी

मैं तब चार से पांच वर्ष का था। जब मैं पहली बार गांव से शहर के लिए भागा था। भागने की प्रबल इच्छा मुझे अब भी याद है। घर वालों से जिद करके मैं बाबा के साथ बारिश में भींगता हुआ घर से निकला था। बारिश में भींगना मुझे याद नहीं लेकिन जिन्हें याद है वो ऐसा हीं बताते हैं। मैं शक्तिनगर फूआ के पास पढ़ने के लिए गया था। उस जिद में सहमति सभी की थी तैयारी शायद किसी की नहीं। शायद किसी चिज़ के लिए तैयार हुआ हीं नहीं जा सकता सफल होने पर या घटना के घट जाने पर हम दंभ भर सकते हैं। हम कह सकते हैं कि मैं इसके लिए तैयार था। 
मेरे लिए अभी किसी भी परिस्थिति में "मैं इसके लिए तैयार हूं" कह पाना स्वयं को धोखा देने जैसा है। मेरा प्रयास लंबा होता है मैं किसी के लिए तैयार नहीं। मुझे तैयार होने के लिए भी तैयारी करनी पड़ती है। तैयारी इतनी लंबी होती है कि घटना घटने से पहले विश्वास कहीं नजर नहीं आता। शायद यहां कोई भी तैयार नहीं है। सफल लोगों की कहानियां सफल होने के बाद तैयार होती है और असफल व्यक्ति की कहानी खुद की आंखों में उम्र भर तैरती हैं। 
मैं सफल या असफल नहीं बस अच्छा बनने की इच्छा रखता हूं। मैं बचपन में अच्छा बनने के लिए शहर गया था या बुरा यह मुझे ठीक-ठीक याद नहीं परंतु आज ठीक-ठाक की दौड़ में ठहरकर पिछे देखना ठीक लगता है। 
मैं जब भी पिछे देखता हूं स्वच्छ पानी जैसे अतीत को अंजुली में भर तेजी से पीने का प्रयास करता हूं इससे पहले कि कोई उसे गंदा कर दे। 
अतीत के शहर में प्रवेश करने के बाद ज्ञान हुआ कि उन वर्षों में मैं गांव से दूर नहीं हुआ था। 
घर से भी नहीं। केवल पिताजी से दूर हुआ था। मां की याद मेरे लिए कभी स्थाई नहीं रही। गांव से आते वक्त आंखे भींग जाने से ज्यादा मैं मां से नहीं जुड़ पाया। आंखों में आसूं मां से दूर जाने के होते थे या पिताजी से ना मिल पाने के इसका ज़बाब मैं अब नहीं ढूंढ़ता। लेकिन घर से आते वक्त मैं पिताजी से कभी मुलाकात नहीं हो पाती थी। फूआ से मां का प्यार इतना गाढ़ा मिलता रहा कि मैं मम्मी शब्द से बहुत दूर चला गया। गांव जाने के बाद मैं मम्मी को फूआ बुलाता था लेकिन पिताजी को पिताजी। अब मैं मम्मी को मम्मी बुलाता हूं। इसका कारण मां का घर के प्रति समर्पित होना था। मैंने मां को अक्सर जलते चूल्हे के सामने उठ रही आंच में झुलसते हुए देखा था। घर को मां से अलग करके देखना आज भी अहंकारी होने जैसा है। बचपन में मेरा घर ना जाना मुझे मां से दूर ले गया। 
पिताजी का लगभग हर तीन महीने पर विद्यालय के कार्यालय में टेलीफोन आता था मैं उनसे लगभग १ मिनट बात करता फिर मध्यांतर में अकेले कहीं कोने में बैठ आंखों को गीला कर देता। कुछ समय बीतने के बाद क्वाटर के सामने मंतराज अंकल के यहां जो बीएसएनएल में काम करते थे उनके यहां हर महीने घंटी बजने लगी। पिताजी ने नया फोन लिया था और हच का सिम, नेटवर्क की समस्या तब के दिनों में और सघन थी। पहाड़ पर चढ़कर छोटी बात हुआ करती थी। बातें वहां भी एक मिनट की थी। उस एक मिनट के पहले १० सेकेंड में मैंने पिताजी से यहीं पूछा था कि उन्होंने कौन सा फोन लिया है? उसमें तस्वीर खींची जा सकती है या नहीं? पिताजी ने नोकिया १११० का नाम लिया। मैंने अपने दोस्त से पूछा जिसकी मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान थी तो उसने बताया कि इस मोबाइल में कैमरा नहीं है। गाने भी नहीं हैं बस रंग दे बसंती का रिंग टोन है जिसे मैंने घर पहुंचने पर उसे रिंगटोन सेट किया था। शायद यहीं कारण है कि मेरी पिताजी के साथ एक भी तस्वीर नहीं। कैमरा होता तो कहीं ना कहीं मैं उन्हें अपने साथ कैद जरूर कर लेता। धीरे-धीरे महीने १५ दिन में बदल गए। उन बातों में मेरे बड़े होने की गंध आती है। कुछ महीनों में हफ्तों ने स्थान ले लिया। और बातों में अब शिकायत और सुझाव मिश्रित डांट ने। पिताजी की आवाज में मुझे मेरे भविष्य को लेकर उनकी चिंता महसूस होने लगी। भविष्य की चिंता अक्सर हमारे भविष्य को सही मार्ग की ओर फेंकती है लेकिन वर्तमान के उल्लास को चोटिल करती है। मेरा अतीत मेरे वर्तमान से कहीं अधिक सुसज्जित, प्रसन्न, उल्लास से सजा हुआ, आनंद से भरा था। एक समुंद्र जितना गहरा। जो मेरी प्यास नहीं बुझा रहा था लेकिन उसकी गहराई में मेरा सबसे प्रिय समय था। वर्तमान में अतीत का एक मिनट आज शून्य हो चुका है। मां से मैं अब भी लंबी बातें नहीं कर पाता। मां की हमेशा शिकायत रहती है कि मैं ज्यादा बात नहीं करता मेरे पास इस सवाल का ठीक-ठीक ज़बाब अब भी नहीं है शायद उस एक मिनट ने हीं आज भी मुझे उतने समय में अपनी बात रखने में दक्ष बना दिया है। मां को देखकर पिताजी की यादें हरी हो जा जाती हैं इसलिए उस एक मिनट की जरूरत मुझे आज भी है। मां के ना रहने पर मुझे कोई और रास्ता देखना होगा। और बताओ,...और बताओ से मैं बातों को एक घंटे और खींच सकता हूं फिर भी उन समयों में किया गया बात एक मिनट में सिमटा हुआ मिलेगा।
-पीयूष चतुर्वेदी

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