ऐसा दिखता है
ऐसी सड़कें हैं
मां पहाड़ों पर बसती हैं
अति दुर्गम इलाकों से होकर गुजरना होता है
जंगली जानवरों का समूह रास्ते में डेरा डाले बैठे रहते हैं।
जैसे बीते दिनों की तमाम स्मृतियां अब भी मुझे याद हैं।
रास्ते पर चलना आरम्भ करने से लेकर वहां पहुंचने तक कुछ भी नया महसूस नहीं किया मैंने। मानों अपने अंदर मैं इस स्थान को जी रहा था लेकिन वहां पहुंच नहीं पाया था।
आज यहां पहुंचा तो इस स्थान के साथ वर्तमान में खुद को पाया।
अतीत के झरोखे में झांकता हूं तो पिताजी को यहां आता हुआ देखता हूं।
हर नवरात्र के पहले पिताजी रात में साथ लेकर जाने के सपने दिखाते और सुबह के यथार्थ में मुझे सोता हुआ छोड़ मंदिर निकल जाते। यहां आकर अहसास किया जा सकता है कि उसका कारण क्या रहा होगा।
ऐसी अनगिनत कहानियां पिताजी से जुड़ी हुई हैं। दूसरी भाषा में पिताजी हीं कहानी हैं जिनका पूरा होना अभी बाकी है।
भैया को देखता हूं तो उस कहानी के वाक्य पूरे होते नजर आते हैं। पिताजी की धूंधली यादों में भैया का चेहरा साफ नजर आता है। उनके देंह से जीवन की बदबू नहीं आती। मां जब रोती है कहानी का एक पन्ना पूरा लिखा हुआ आंखों में शब्दशः उतर आता है। कहानी के कुछ पन्ने अभी लिखे जाने बाकी है। कहानी कब पूरी होगी इसका उत्तर भी ठीक-ठाक समझ पाना भविष्य को चुनौती देने के समान है। मां का रोना हीं अटल सत्य है यह कहानी का वर्तमान है। जब मां रोती है उस पल सामने खड़ा सत्य से सजा वर्तमान झूठ लगने लगता है। स्याही वाला कमरा अपने रंग खो देता है। सामने लहराते घने हरे पेड़ ठूंठ नजर आने लगते हैं। उस क्षण अतीत का झरोखा मां के साथ नजर आता है।
मैं इस स्थान पर सत्य के साथ था। अस्तित्व को जीते हुए अतीत के झरोखे में झांक रहा था। किसी के द्वारा अपने आप को देखे जाने से पहले स्वयं को देखता हुआ लंबी गहरी सांसें ले रहा था। इतनी गहरी कि मैं पहाड़ों में तैर सकूं। तन से नहीं मन की गति से हवा को चिरता हुआ।
बली का स्थान, नदी में फैली चट्टानें, घना जंगल सभी पुराने लग रहे थे। नया सिर्फ मैं था।
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