मैं संजय नाम के एक लड़के को जानते हूं जो पतंग बाजी में माहिर था। घर के झाड़ू की सीक और अखबार से पतंग बनाता और दूर आसमान में उड़ाता था। मैं जब भी उसे पतंग उड़ाता हुआ देखता ऐसा प्रतीत होता मानों वह पतंग के साथ उड़ रहा हो। वह जितनी तेजी से उड़ता उतनी तेजी से उसकी उंगलियां घाव से भर जाती। उसके घाव भरने में होली तक का समय लग जाता। अगले साल वह फिर तैयारी करता। कटी पतंगे जब प्रतिरोध शून्य होकर धरती की ओर भागती वह उन्हें देखता तक नहीं। साथ के लड़के जो लटाई पकड़े होते, उसे कन्नी दे रहे होते कटी पतंग के पीछे हवा में पतंग के उड़ने की गति के सापेक्ष धरती पर दौड़ लगाते। धीरे-धीरे मुहल्ले में पतंगबाजों की संख्य बढ़ने लगी। संजय को कन्नी देने और उसकी लटाई पकड़े खड़े लोग अब पतंगबाजी कर रहे थे। अपने गुरु का गुरूर पहली बार लटाई थामें रहने वाले पप्पू ने तोड़ा था। संजय तब तक पतंगों के साथ उड़ता रहा जब तक उसकी खुद की पतंग नहीं कटी। पप्पू कब तक उड़ा यह ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है। लेकिन संजय ने उसके बाद पतंग उड़ाना बंद कर दिया और उसके बाद मैंने उसे कभी उड़ते हुए नहीं देखा।
फिर वह चलने लगा। चलने वाले खेल खेलने लगा। चलते-चलते उसके हाथ के घाव जल्दी भर गए थे। मैंने उससे पूछा तु पतंग उड़ाना बंद क्यों कर दिया? उसने कहा क्योंकि मैं अब उड़ नहीं पाता। मैंने कहा उड़ती तो पतंग है। संजय मुझे कुछ देर देखता रहा और कहा नहीं मैं भीतर उड़ता हूं और पतंग आसमान में। मुझे उसका उड़ना प्रतीत होना सही था लेकिन मैंने उसे पतंग के साथ उड़ना आभास किया था और वह भीतर उड़ता था।
क्योंकि उस दिन त्यौहार होता है इसलिए।
मैंने कहा हम त्योहार क्यों मनाते हैं?
उसने कहा ताकि हम पतंग उड़ा सकें।
फिर हर त्यौहार में हम पतंग क्यों नहीं उड़ाते?
क्योंकि हम लंबे समय तक उड़ नहीं सकते, इतना कहकर वो चलने लगा। अब वह पतंग नहीं उड़ाता। पुणे में नौकरी करता है। त्यौहार के दिनों में हवाई जहाज में बैठकर घर की ओर आता है। कहता है मैंने अब चलना छोड़ दिया है अब बैठा रहता हूं। बस जहाज उड़ता है।
मैंने पूछा जहाज क्यों उड़ता है?
हम त्यौहार क्यों मनाते हैं?
त्यौहार हमें प्रसन्न रहने का अवसर प्रदान करता है।
जीवन जीने की कला से संवारता है।
संस्कार के शिखर तक पहुंचने के लिए अ. से अज्ञानी से आरंभ हो
आ.
इ.
ई.
से सजाता हुआ हमें
ज्ञ. से ज्ञानी बनाता है।
यहीं भारत की महानता है कि बच्चों की पुस्तकों में प्रेरक प्रसंग को स्थान दिया गया है।
उस सोच को बढ़ाने की दिशा में परिश्रम किया गया है। जहां क्रूरता नहीं सद्भाव है।
आज इन नन्हें हाथों में पतंग है जो इनसे भी बड़ी है। उस पतंग से बड़ा है आसमान। जैस-जैसे ये बड़े होंगे पतंग छोटी होती जाएगी और आसमान पास नजर आएगा। आने वाले वर्षों में यह कन्नी दे रहे होंगे।
कुछ सालों बाद मांझे को ढ़ील। छतों को टापते स्वयं के द्वारा कटे पतंगों को ढूंढने की जिज्ञासा में भटकना भी होगा।
पतंग काटने के सुख से खुद की पतंग कट जाने का अफसोस भी।
इन्हीं पलों में जीवन का नवनिर्माण होगा और नई शिक्षा का उद्गम होगा।
उड़ने, चलने और बैठने की यात्रा का आरंभ होगा।
-पीयूष चतुर्वेदी
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