मैं तब भी मुस्कुराता रहूंगा।
भीतर तक मुझे नोच डालोगे।
हृदय की सतह को छील डालोगे।
मुझे रूखा कर दोगे।
मेरे भीतर की बहती नदी में लोटे भर का जल स्तर हो जाएगा....फिर भी
कुछ रह जाएगा शुक्ल संसार जितना निर्मल।
जहां...
मैं तुम्हारे स्तर की घृणा नहीं करूंगा।
प्रेम को भी किसी समय के बंधन में नहीं बाधूंगा।
तुम्हारे सम्मान में।
सजे हुए अपमान में।
तुम मुझे स्विकार करोगे।
मुझे नकार दोगे।
मैं तब भी मुस्कुराता रहूंगा।
तुम्हारी सोच के ठीक बाद तक।
मृत्यु के ठीक पहले तक।
जब मैं स्वयं से संवाद करूंगा मैं फूट कर रोऊंगा और फिर मुस्कुराता हुआ सारा कुछ समेट लूंगा।
भींगी हुई रेत जैसा।
मैं बंधा रहूंगा... मुस्कुरता रहूंगा।
2 comments:
सुंदर, बहुत बढ़िया लिखा है
धन्यवाद।
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