सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, May 19, 2025

बंधा रहूंगा... मुस्कुरता रहूंगा


मैं तब भी मुस्कुराता रहूंगा।

भीतर तक मुझे नोच डालोगे।
हृदय की सतह को छील डालोगे।
मुझे रूखा कर दोगे।
मेरे भीतर की बहती नदी में लोटे भर का जल स्तर हो जाएगा....फिर भी
कुछ रह जाएगा शुक्ल संसार जितना निर्मल।

जहां...

मैं तुम्हारे स्तर की घृणा नहीं करूंगा।
प्रेम को भी किसी समय के बंधन में नहीं बाधूंगा।

तुम्हारे सम्मान में।
सजे हुए अपमान में।
तुम मुझे स्विकार करोगे। 
मुझे नकार दोगे। 


मैं तब भी मुस्कुराता रहूंगा।

तुम्हारी सोच के ठीक बाद तक।
मृत्यु के ठीक पहले तक।

जब मैं स्वयं से संवाद करूंगा मैं फूट कर रोऊंगा और फिर मुस्कुराता हुआ सारा कुछ समेट लूंगा।

भींगी हुई रेत जैसा।
मैं बंधा रहूंगा... मुस्कुरता रहूंगा।

2 comments:

Anonymous said...

सुंदर, बहुत बढ़िया लिखा है

Piyush Chaturvedi said...

धन्यवाद।

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