जब पहली बार गया लखनऊ के चिड़िया घर में गया था उस समय पक्षियों के होने या ना होने भाव से अंजान था। मैं चिड़ियों से कहीं ज्यादा उन जानवरों के प्रति आकर्षित था जिनका शोर चिड़िया घर के नाम से नहीं जन्मता। फिर इंदिरा गांधी जी के जहाज ने सारा आकर्षण खींच लिया।
डिस्कवरी चैनल को देख जितनी समझ उस वक्त तक जग पाई थी वह मात्र मनोरंजन के आसपास घूम रही थी। एक निरिह आकर्षण जो उन जानवरों की उपस्थिति में मात्र एक प्रसन्नता को जन्म दे रही थी। जो गालों को गुदगुदा रही थी। नपा तुला उत्साह जिसमें देखने और देखे जाने का बोध शामिल था।
दूसरी बार के देखने में एक गहरा आक्रोश और अफ़सोस मन को झकझोर रहा था।
मैं अपने दोस्तों के साथ गया था। बंदरों सा हुड़दंग और पक्षियों के कलरव के बीच जानवरों को कैद किए जाने का क्रोध।
क्यों ऐसी स्थिति का जन्म हुआ?
और यदि यह सारा कुछ उन्हें बचाने का प्रयास था तो वह कितना इमानदार है?
क्यों उन्हें कैद में देखकर हम तालियां बजा रहे हैं? उन्हें पिंजरे में ललकार रहे हैं? उनकी एक गुर्राहट के लिए कानों को थका रहे हैं?
क्या आने वाले दिनों में हम सफल रहेंगे? उस प्रयोजन का कोई परिणाम हमें प्राप्त होगा? क्योंकि हमारे परिवर्तन का प्रयास इतना मिलावटी है कि वह कभी सफल नहीं होने वाला।
बंदरों की हूक सुनते-सुनते यदि हम गूंगे हो जाएं तो भी मनुष्य का अत्याचार जारी रहेगा।
मनुष्य भी प्रकृति है लेकिन हमारी समझ ने सबसे ज्यादा प्रकृति को नष्ट किया है।
आज के दर्शन में मैं उन सारे शिकायतों को स्वयं से दूर होता हुआ पाया। सतीश से बात करते हुए बीच-बीच में मेरा असंतोष बाहर की ओर भाग रहा था।
फिर यथार्थ की बंदरों की उछल के साथ बजती तालियों ने मेरे असंतोष को थोड़ा स्थान दिया। बाघ को देखने के बाद मुंह पर हाथ धरे लगभग नाटकीय ढंग से जो मेरी नकल के आसपास कहीं था ओ भाई थाब ने मेरे सारी शिकायतों को कहीं भीतर निगल लिया था।
पक्षियों के शोर में जगमग होते इसके आश्चर्य को देख मैं मौन हो गया था।
कुछ समय के लिए मुझे स्वयं से घिन्न भी आई। एक गहरी गाढ़ी बदबू जो मेरे भीतर के लालच से जन्मी थी वह उस पानी से भी अधिक बदबूदार थी जो उन पक्षियों के लिए रखा गया था। एक क्रूर पशुता मैं अपने स्वभाव में महसूस कर रहा था। मानों मैं हीं मूल कारण हूं इस दोहन का। मैं इस कृत्रिम सौंदर्य को देखने नहीं इसे और नकली बनाने आया हूं।
प्रकृति को वास्तविक रूप से हमारी जरूरतों ने नहीं हमारी लालच और स्वार्थ ने नंगा किया है। इस बात का आभास मुझे तब हुआ जब यथार्थ के मुंह से गाय... गाय का शोर उठा।
हम इन्हीं के बीच थे या वहां तक पहुंचे थे। जहां सेवाजनीत शुद्ध पोषण था। फिर एक रोज हमारी भूखी मानसिकताओं ने अपनी सीमा लांघी और हमनें उस भोजन श्रृंखला को निगल लिया। अब हम अपने विज्ञान को पोषित करने के क्रम में धीरे-धीरे उसे कुतर रहे हैं।
और मैंने उसे तेंदुए के सामने खड़ा कर दिया। उस प्रसन्नता के प्रस्ताव को मंजूरी देने के लिए जिसकी उसे जरूरत हीं नहीं थी। यह सारा कुछ उसकी इक्छा सूची में कहीं नहीं था। झूठी और अशुद्ध इक्छाओं की जो डायरी अभी लिखनी प्रारंभ हुई है उसकी स्याही जब तक समाप्त होगी उस समय तक स्याही वाले कमरे में फैली बेल की जड़ें पूर्णरूप से सूख जाएगी।
यह लिखते हुए मैं अपने लालची स्वभाव से विद्रोह कर रहा हूं। मुझे आगे ऐसा होने से पूर्व बेल का पत्ता है। सूखा पत्ता जो समर्पित है संपूर्ण है।
बरामदे के उस घोंसले को बनता देखना है जहां चिड़िया मुक्त भाव से तीनके इकट्ठा कर रही है।
जहां उसके उड़ने की भूख में किसी पिंजरे का डर नहीं।
2 comments:
Bahut badhiya
धन्यवाद आपका।
क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं?
ब्लाग में आपका नाम प्रदर्शित नहीं हो रहा।
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