सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, October 26, 2025

हम एक रोज ऐसे खांसते-खांसते जानवर हो जाएंगे।

घर के सामने के जो पेड़ सारे काटे जा चुके हैं उनके ठूॅंठ जीवन को मानों धीरे-धीरे निगल रहे हैं। 
इस वर्ष के प्रारंभ से मैं सबसे ज्यादा अपनी स्वास के लिए लड़ा हूं। 
बेतहासा खांसता हुए बीतते महीनों ने अब मास्क की ओट में खुद को छुपा लिया है। 
घनी पेड़ों की छांव में मैं खुद को जब मुक्त करता हूं और जंगल कटने के अफ़सोस से भर जाता हूं। 
पिताजी का बसाया हुआ जंगल जीवन जीने की लालच में हमनें नोच दिया और उसे नोचते हीं शहर की ओर भाग आए। 
क्या इसकी कोई माफी है ? 
या मुझे अपने पाप को पूर्णतः स्विकार करने के लिए कदम के पेड़ के समाप्त होने का इंतजार करना होगा। 
या उसके खत्म होते हीं मैं पूरी तरह गांव से दूर भाग जाऊंगा? 
अब गांव जाना सिमीत हो चुका है। कुछ विशेष कार्यक्रम और आयोजन से इतर कोई विशेष कारण नहीं सूझता। 
यह उहापोह मुझे भीतर तक झकझोर देता है लेकिन समाज का ऐसा हीं निर्माण भविष्य में भी नजर आएगा। रोटी के चक्कर काटता हुआ आदमी पलायन की धुन पर थिरकेगा। 
जब विनोद जी लिखते हैं कटे हुए पेड़ के ठूॅंठ जंगल कटने के कदम हैं
मेरी नजर में यह विस्थापन का भी कदम है।
मनुष्य सारा कुछ समाप्त करते हुए भविष्य की सड़क पर कूदता है। उसे नोचता हुआ उजाड़ता हुआ। 
अतीत के सबूतों को दबाता हुआ। सारी क्रूर हत्याओं के बाद वह स्वयं को नई जगह पर नए लोगों के बीच अच्छे मनुष्य की तरह पेश करता है। 

मुझे अपने मनुष्य होने पर कुछ भीतर तक खरोच महसूस होती है। 
अच्छा मनुष्य होना मुझे स्वप्न सा लगता है। 
इन सबके बीच इमानदार होना एक धोखा है जो हम सभी को देते हैं। यह जानते हुए की हम सिर्फ अंजान लोगों के सामने अपनी झूठी कहानी में इमानदार हैं। जो हमसे अंजान है हम सिर्फ उसकी नजर में इमानदार हैं। 
शायद यहीं कारण है कि निर्मल जी कहते हैं कि अपने अतीत की चिरफाड़ सभी को करनी चाहिए।
मैं उस अतीत में कुछ ढूंढ रहा हूं। 
कुछ पत्ते 
कुछ जड़ें 
जिनमें बेल की जड़ें प्रमुख हैं। 
जो स्याही वाले कमरे के निचे कहीं दबी हैं। 
जो फैलना चाहती हैं। 
बढ़ना चाहती हैं।






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सांस अंदर बाहर हो रही थी। 
आंखों में हल्का तनाव बीच-बीच में आता फिर अचानक कभी होंठ गालों पर परसने लगते। 
स्वप्न था स्वप्निल संसार का स्वप्न
यथार्थ और कल्पना के मध्य अटके भविष्य में कूद जाने का स्वप्न।

सौम्यता और क्रूरता को ढ़ोता हुआ आगे बढ़ते जाने का स्वप्न।
कुछ पाने की लालसा और खो जाने के डर के बीच चेहरे का भाव कभी पिघलता कभी ठोस होता महसूस हो रहा था।

कहीं जाने की इच्छा में पहाड़ थे। 
पढ़ने की इच्छा में ढ़ेर सारी सुन्दर किताबें।
दुनियाभर की बेहतरीन फिल्मों को आंखों में घटता देखने का सुख। 

फिर एक रोज कमजोर से नींद में मैं पहाड़ों पर दूर कहीं घूम रहा था। मुंह में बर्फिली हवा ने प्रवेश किया और थकी हुई खांसी आई। 
मैं देर तक खांसता रहा। गांव के मेले की धूल मानों भीड़ के पैरों से उड़कर मेरे गले में चिपक गया हो। कोई चौराहे पर पड़ा कूड़ा घर जिसके आस-पास उससे अधिक क्षमता का कूड़ा फैला है वह मेरे नाक को जला रहा है। मैं पहले छींकता हूं फिर खांसता हूं।

मैं उस रोज से खांसता जा रहा हूं। 
सारे प्रकार की दवाइयां चखने के बाद अब कुछ भी छक के उदरस्थ करने की इच्छा डरी हुई रहती है। 

कोई कहता है ठंडा नहीं खाना।
कोई कहता है पीने से बचो। 
किसी ने तो प्याज तक से परहेज़ की सलाह दे डाली। 

आर्युवेद की बिना साइड इफैक्ट और एलोपैथ की साइड इफेक्ट्स दवाइयों ने भी उसे कोई दंड नहीं दिया तो मैं अपनी शिकायत लेकर होम्योपैथी में भागा।

अब मैं लगभग हर सुबह गर्म और गुनगुने पानी के बीच के अंतर को टोहता हुआ मैं खूब जोर से खांसता हूं।
कि शायद वह जो फंसा हुआ है गले में कहीं वो मेरे इस इंतजार के सम्मान में मुझे माफ़ कर देगा। 

होम्योपैथिक गोलीयों की गिनती करता हुआ मैं खुद को बहुत असहाय महसूस करता हूं। 
गले को साफ करना पूरे दिन को शांत करने की वर्जिश है कि शायद ये दिन मुझे शांत रहने देगा। 
गुड़ की मीठी चटचटाहट भी उस व्याकुलता को शांत नहीं करता। 

मास्क के भीतर बह रहा पसीना होंठों के आसपास तैरता रहता है। इस अराजकता को मैं सड़कों किनारे विस्तारित दुकान की तरह देखता हूं। जहां चलना कष्टदायक है। सांस लेना मुश्किल है।

डाक्टर कहते हैं यह जरूरी है। 
निरिह भूख से भी जरूरी। 
धुली हवा से भी। 
सुनिश्चित बारिश से भी।
धवल प्रकाश से भी।
निश्छल प्रेम से भी।
मीठे चुंबन से भी।
स्वचछ संभोग से भी।


और सांस खींचने से भी ज्यादा आवश्यक है। गंदी सांस लेते हीं अंदर सब मैला हो जाएगा। क्या करेंगे ऐसी गंदगी का? बाहर क्या कम गंदगी है जो भीतर भी समेटना है? मास्क की विशेषता अतुल्य है। इसे छोड़ा नहीं जा सकता है। कोरोना ने हमें यहीं दिया है।

आपने तो देखा होगा? अब दवाइयां कम असर करती हैं या समय लेती हैं। अब देखिए आप कब से खांसे जा रहे हैं?

उनकी बातें उचित हैं। मैं खांस रहा हूं। लेकिन मैं उस खांसने को ठीक-ठीक खांसता हुआ यहां लिख नहीं पा रहा।

भोजन के प्रति मैं कभी उतना उत्साहित नहीं रहा लेकिन स्वास्थ्य का अवसान उसमें हिसाब-किताब किए बैठा है।

कितना शुद्ध है सारा कुछ जिसका हम भोग कर रहे हैं या कितनी वास्तविकता है हमारे इर्द-गिर्द जो हमें निगल रही है?

किसे पता था की प्रकृति को नोचते हुए हम एक रोज ऐसे खांसते-खांसते जानवर हो जाएंगे।

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