सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, November 2, 2025

उस हत्या में उसके कला का उदय हुआ था- पीयूष चतुर्वेदी

मेरे सुख और दुख का कोई पैमाना नहीं है। वह मात्र एक बिंदु है जो दृढ़ है। उसे मैं भी समय के चलते चक्र के साथ नहीं बदल सकता। 

ऊंचे और निचले स्तर का स्थाई बिंदू।
जो अपने यथार्थ को लिए सदैव शास्वत है। 

जो वर्तमान और भविष्य के तमाम बंधनों से मुक्त है। बीच में घट रहा सारा कुछ संतोष और असंतोष के पैमाने पर तैरता जीवन है। जीवन को जीने का यात्रा मात्र। 
जिसे मैं महसूस कर रहा हूं। देख रहा हूं। मुझे गहरे पानी में तैरना नहीं आता लेकिन उथले पानी में डूबकियां लगाकर खुद को भींगा लेता हूं। मानों जैसे भींगने की यात्रा।

मृत्यु के पश्चात पिताजी के अंतिम दर्शन ना कर पाने से बड़ा दुख मेरे लिए जीवन में कुछ भी नहीं हो सकता। मेरा रूदन इतना सघन था कि मैं उनके पास जाने का प्रयास करता और मुझे अपनों द्वारा उस मिट्टी के लोथे से दूर फेंक दिया जाता। उस दुस्वप्न को मैं रोज अपने स्वप्निल संसार में धोना चाहता हूं लेकिन वो आज भी वैसा मेरे सापने तैरता है। हास्पिटल की दवाइयों की तीखी गंध और सूट में लिपटा हुआ। 

और वह गूंगी, बहरी, अंधी महिला जिसे सिर्फ सूप और अनाज का स्पर्श करा दिया जाता था। जिसे सभी गूंगी के नाम से बुलाते थे। मैंने उसका यहीं नाम सुना था। अब वह इस दुनिया में नहीं रहीं। यह कितना त्रासदी भरा है कि आपको आपके नाम से ना पुकारा जाए। किसी का अलग होना उसके अस्तित्व की हीं हत्या कर दे।

उस हत्या में उसके कला का उदय हुआ था। सूप और अनाज को छूते हीं वह हं..हं.. ऐं...ऐं... का शोर करती अपने काम में लग जाती। आस पास बैठे सभी अपने आंख को आराम देने के प्रयास में लगे रहते और वह अनाज को सूप से फटकती रहतीं। उनकी आवाज में अपने सारे किए हुए काम का समापन हिलते हाथों से होता। यह कितना दिव्य था। अंधे आंखों में जो रुपए चमकते थे। उसके काम को, उनकी मेहनत को देखते हुए। जो खुशी होती थी वह अनमोल है।

इसके अतिरिक्त सारा कुछ यायावर है।
जैसे सबसे खुबसूरत कल्पना शुक्ल संसार है।
सबसे स्वच्छ यथार्थ निर्मल संसार।

इससे इतर जो कुछ भी है वह मात्र यात्रा है आरंभ या अंत नहीं।

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